Search This Blog

Friday, July 31, 2009

दूसरा बनवास

राजमणि जी दूसरा बनवास कैफी आज़मी की बेहतरीन रचना है। इसको पढ़वाने का शुक्रिया। अभी छुट्टी की लेकर काफ़ी चर्चा हुई। इस पर मेरा नज़रिया कुछ ऐसा है।
मकतबे- इश्क का दुनिया में निराला है सबक़
उसको छुट्टी न मिली जिसको सबक़ याद हुआ।
तो भाई अपन तो दूसरी कतार में आते हैं, लिहाज़ा अपनी कोई छुट्टी नहीं है। आज बशीर बद्र की एक ग़ज़ल पेश है।
न जी भरके देखा न कुछ बात की
बड़ी आरज़ू थी मुलाकात की।

कई साल से कुछ ख़बर ही नहीं
कहाँ दिन गुज़ारा कहाँ रात की।

उजालों की परियां नहाने लगीं
नदी गुनगुनाई ख़यालात की।

मैं चुप था तो चलती हवा रुक गई
ज़बां सब समझते हैं जज़्बात की।

सितारों को शायद ख़बर ही नहीं
मुसाफिर ने जाने कहाँ रात की।

मुक़द्दर मेरे चश्मे- पुरआब का
बरसती हुई रात बरसात की।
मृगेन्द्र मकबूल

No comments: