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Wednesday, July 29, 2009

मेरी ज़िंदगी वो गिलास है जो न खाली है न भरा हुआ

आज खूब लिखा था मैंने मगर सब उड़ गया,बहुत कोफ्त हो रही है,मगर दोस्तों की मेहनत देखकर फिर लिख रहा हूं
० सबसे पहले चिं. सौरभ को जन्मदिन की बधाई,जीवेम शरदः शतम...० राजमणिजी की कल की परागजी की और आज खंडेलवालजी की ग़ज़ल बेहतरीन है,बधाई..० मकबूलजी बरसात में आप साईबर कैफे में जाकर ब्लाग लिखते हैं आप की निष्ठा को सलाम..० अशोक मनोरम ने पारी अभी शुरू की है,धीरे-धीरे रंग में आएंगे..
एक गज़ल दे रहा हूं
मेरी ज़िंदगी का दरख्त नये हादसों में बड़ा हुआ
हुई अपने ख़ून की बारिशें तो ये ज़ख्म दिल का हरा हुआ
छिपे पिंजरे कितने खयालों के तेरी आंख के इन उजालों में
मैं हूं कैद यूं तेरे ख्वाबों न हूं नींद में न जगा हुआ
कोई हादसा अभी गुज़रा है मेरे गुलशितां के क़रीब से
की है तितलियों ने भी ख़ुदकुशी यहां फूल भी है जला हुआ
ये जो बिन पीए ही बिखर गई वो शराब थी मेरे नाम की
मेरी ज़िंदगी वो गिलास है जो न खाली है न भरा हुआ
न है नख्श है न कोई निशां मेरे लापता से वुजूद के
दिखा आईने में अभी मुझे वही शख्स है जो मरा हुआ
तेरे जुल्फ में जो सजा हुआ ये खिला-खिला-सा गुलाब है
ये सिहर-सिहर के महक उठा मेरे प्यार से है भरा हुआ
न वो नग़मा आया अमीरी में कभी रू-ब-रू मेरे भूल से
था जो हमसे इतना ख़फा-ख़फा वही गर्दिशों में सगा हुआ।
पं. सुरेश नीरव

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