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Tuesday, August 25, 2009

चाँद हदियाबादी शुक्ल की दो गज़लें


जो भी मिलता है वो लगता है मुझे हारा हुआ
वक्त के हाथों या फिर हालात का मारा हुआ

कौन सुनता है किसी का दर्द इस माहौल में
हर किसी की आँख का पानी है अब खारा हुआ

शोरोगुल में दब के रह जाती हैं आवाज़ें सभी
दम घुटा है सोज़ का और साज़ नाकारा हुआ
दो बदन इक जान थे उड़ते रहे आकाश में
आए जब धरती पे दोनों उनका बँटवारा हुआ
रात भर जागा किए बिरहा की काली रात में
''चाँद'' आई नींद गहरी जब था उजियारा हुआ
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कौन कहता है लबो रुख़सार की बातें न हों
सुर्खियों की बात हो अख़बार की बातें न हों
दुश्मनों का जो रवैया है ये उन पे छोड़ दो
दोस्तों में तो कभी इंकार की बातें न हों
एक हो तुम पाँव हैं दो कश्तियों में किसलिए
इक तरफ़ हो जाओ तो बेकार की बातें न हों
सब ज़माने से न कह दें कान की कच्ची हैं ये
घर की दीवारों में अब अग़यार की बातें न हों
क्यों ज़माने को ख़बर हो जानेमन! ये जान लो
प्यार की बातों में अब तकरार की बातें न हों
चाँद" हरदम गर्दिशे अय्याम में चलता रहा
आज इसके सामने रफ़्तार की बातें न हों।
प्रस्तुति –राजमणि

3 comments:

निर्मला कपिला said...

जो भी मिलता है वो लगता है मुझे हारा हुआ
वक्त के हाथों या फिर हालात का मारा हुआ
लाजवाब शेर है दोनो गज़लें ही काबिले तारीफ हैं आभार्

नीरज गोस्वामी said...

शायरी और दोस्ती में चाँद साहब का जवाब नहीं...दोनों में लाजवाब हैं...खुश रहें आबाद रहें ये ही दुआ निकलती है उनके लिए...
नीरज

अर्चना तिवारी said...

वाह !बहुत खूब..excellent