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Monday, August 3, 2009

बादल

मुकेश परमार की कवितापश्यंती से)
(आकाश के सन्नाटे में
छुटपुट छितरे-छितरे बादल
नील गगन की शांत झील में
अमहद नाद लिए मुठ्ठी में
नाहक डौड़ लगाते बादल
अलग-अलग जब भी आते
नीले,काले,भूरे बादल
आपस में टकराकर फूट जाते
कितने ही रंग-बिरंगे
गीष्म काल की तप्त धरा पर
जब जीव-जगत व्याकुल होता
दूर गगन तक घनघोर घटा बन
अंतस तक बारिश पहुंचाते बादल
विरही की अंतस पीढ़ा को
पल-पल आग लगाते बादल
तप्तधरा की खुश्क त्वचा में
जब पलने लगता है लावा तब
अमड़-उमड़ कर गरज-गरज कर
निशिदिन जल बरसाते बादल।
प्रस्तुतिः पं. सुरेश नीरव

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