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Wednesday, August 26, 2009

ग़ज़ल

सू-ऐ -मयक़दा न जाते तो कुछ और बात होती
वो निगाह से पिलाते तो कुछ और बात होती।

गो हवा- ऐ- गुलसितां ने मेरे दिल की लाज रख ली
वो नक़ाब ख़ुद उठाते तो कुछ और बात होती।

ये बजा, कली ने खिलकर किया गुलसितां मुअत्तर
मगर आप मुस्कराते तो कुछ और बात होती।

ये खुले खुले से गेसू, इन्हें लाख तू सँवारे
मेरे हाथ से संवरते तो कुछ और बात होती।

गो हरम के रास्ते से वो पहुँच गए ख़ुदा तक
तेरी रहगुज़र से जाते तो कुछ और बात होती।
आगा हश्र
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मक़बूल

1 comment:

नीरज गोस्वामी said...

ये बजा, कली ने खिलकर किया गुलसितां मुअत्तर
मगर आप मुस्कराते तो कुछ और बात होती।

सुभान अल्लाह...क्या बात है...वाह...
नीरज