हम दहर के इस वीराने में जो कुछ भी नज़ारा करते हैं
अश्कों की ज़बां में कहते हैं, आहों से इशारे करते हैं।
ऐ मौज़े- बला, उनको भी ज़रा दो चार थपेड़े हलके से
कुछ लोग अभी तक साहिल से तूफां का नज़ारा करते हैं।
क्या जानिए, कब ये पाप कटे, क्या जानिए वो दिन कब आए
जिस दिन के लिए, इस दुनिया में, क्या कुछ न गवारा करते हैं।
क्या तुझको पता, क्या तुझको ख़बर, दिन- रात ख़यालों में अपने
ऐ काकुले-गेती हम तुझको दिन रात संवारा करते हैं। जज़्बी की एक ग़ज़ल पेश है।
मृगेन्द्र मकबूल
1 comment:
Lage rahen.
वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को उन्नति पथ पर ले जाएं।
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