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Wednesday, August 26, 2009

बाहर से मुस्काते दीख पड़े हम भीतर से टूटते

आज फिर एक गीत दे रहा हूं
वीणा के तारों को जितना दुलराया उतने ही रूठते गए
बाहर से मुस्काते दीख पड़े हम भीतर से टूटते गएपारे-सा बिखर गया यादों का ताश महल
दर्पण-सा टूट गया शबनमी अतीत
धूंओं में खो गई संदली हंसी
रूठ गए नयनों से सांवले प्रतीक
गाह चले शान से बमतो बहुत
रास्ते खुद ब खुद छूटते गए
वीणा के तारों को जितना दुलराया उतने ही रूठते गए
बाहर से मुस्काते दीख पड़े हम भीतर से टूटते गए
ऐसे हैं बस्ती में आदमी यहां
जैसे हों ज़िंदा परछाइयां
काग़ज़ के फूल कभी खिलते नहीं
पानी और तेल कभी मिलते नहीं
वैसे तो दोस्तों के काफिले बहुत
राह चले काफिले छूटते

गएवीणा के तारों को जितना दुलराया उतने ही रूठते गए
बाहर से मुस्काते दीख पड़े हम भीतर से टूटते गए।
आदमी है पुर्जा शहर मशीन
बाहर से मुस्काता भीतर गमगीन
फाइल में फूल कभी खिलते नहींफूल कभी गुलशन को लूटते नहींवीणा के तारों को जितना दुलराया उतने ही रूठते गए
बाहर से मुस्काते दीख पड़े हम भीतर से टूटते गए
पं. सुरेश नीरव

2 comments:

Meenu Khare said...

ऐसे हैं बस्ती में आदमी यहां
जैसे हों ज़िंदा परछाइयां
काग़ज़ के फूल कभी खिलते नहीं
पानी और तेल कभी मिलते नहीं
वैसे तो दोस्तों के काफिले बहुत
राह चले काफिले छूटते
गएवीणा के तारों को जितना दुलराया उतने ही रूठते गए

सुन्दर अभिव्यक्ति. बधाई.

Udan Tashtari said...

बेहतरीन अभिव्यक्ति!