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Wednesday, September 2, 2009

पेश है दिनेश ठाकुर की दो ग़ज़लें


थक कर और किधर जाऊँगा
शाम ढलेगी, घर आऊँगा।

प्यास लबों पर रहने भी दो
प्यास बुझी तो मर जाऊँगा।

आज भले सूखा जोहड़ हूँ
बारिश होगी, भर जाऊँगा।

धुंधला हूँ, बेनूर नहीं मैं
रातें रौशन कर जाऊँगा।

तेरे दर से उम्मीदें हैं
जो देगा, लेकर जाऊँगा।

ख़ुशबू पर हक़ अपना भी है
गुल, तुझको छूकर जाऊँगा।

सन्नाटे में दम घुटता है
कमरे से बाहर जाऊँगा।

ज़ादे-सफ़र का बंदोबस्त है
ख़ाली हाथ मगर जाऊँगा।

मेरे हाल पे हँसने वाले
रोएगा, जो मर जाऊँगा।


जाने दिल में क्या डर है
उसकी जेब में खंजर है

बारिश बाहर-बाहर है
आग तो मेरे अंदर है

एक झरोखे के पीछे
यारो एक समंदर है

तनहा हूँ पर लगता है
मेरे साथ भी लश्कर है

तेरे साथी धन वाले
मेरे साथ कलंदर है

पूछ रही है फ़स्ले-गुल
कहाँ वो तेरा दिलबर है

है इक लम्बा-सा सेहरा
उसके बाद समंदर है

नाप ज़रा गहराई भी
गर तू मुझसे बेहतर है
प्रस्तुति –राजमणि

1 comment:

दिनेशराय द्विवेदी said...

सुंदर ग़ज़लें। पढ़ाने के लिए आभार!3

पर ये वर्ड वेरीफिकेशन हटाएँ।