मंगलवार के अखबारों में हरियाणा के पूर्व डीजीपी एस पी एस राठोड़ की हंसती हुई तस्वीर न सिर्फ कानून और व्यवस्था पर एक निर्लज्ज अट्टाहास है बल्कि एक चुनौती देता दंभ भी उसमे झलक रहा है। उन्नीस साल पहले किये गुनाह के लिए कोई शर्म या अपराध बोध का नामोनिशान तक नहीं उसकी आँखों में। बल्कि अपनी बेगुनाही के दावे ठोक रहा है। ये कैसा न्याय और कैसा तंत्र है? जिस शख्स ने सरकारी पद का दुरूपयोग किया, एक चौदह साल की नाबालिग लड़की का यौन उत्पीडन किया, उसे आत्महत्या जैसा कदम उठाने पर मजबूर किया, उसे सिर्फ छः महीने की जेल? अगर यही जुर्म कोई दूसरा करता तो भी क्या सी बी आई उसके खिलाफ मामूली धाराएँ लगाती?
चौदह साल उम्र ही क्या होती है। रुचिका उस समय नौवी कक्षा की छात्रा रही होगी जब एस पी एस राठोर ने, जो उस समय एस पी रैंक का अफसर था, उसका यौन उत्पीडन किया। जरा उस मासूम लड़की की मन :स्थिति का अंदाजा लगाइए , उसके कोमल मन पर उस घटना का कैसा असर हुआ होगा कि उसने अपनी इहलीला ही समाप्त कर ली। एक टेनिस प्लयेर होने की महत्वकांक्षा रखना क्या उसका कसूर था?
राठोड़ ने उसके परिवार का जीना मुहाल करा दिया। अपनी पोस्ट की ताकत से इस मामले को दबाने की कोशिश की और अपनी पहुँच से, इस केस की जाँच चलते हुए भी डायरेक्टर जनरल की पोस्ट तक जा पहुंचा। और हद तो ये कि अब उन्नीस साल बाद उसे सजा हुई भी तो सिर्फ छः महीने । दस मिनट में उसे जमानत भी मिल गई और बड़ी अदालत में अपील का समय भी।
एक जिन्दगी और टेनिस की एक संभावित प्रतिभा जो टेनिस में देश का नाम रौशन कर सकती थी , की असमय मौत का जिम्मेदार शख्स सीना ठोक कर खुले आम कह रहा है कुछ बिगाड़ सकते हो तो बिगाड़ लो मेरा।
क्या नैतिकता के तथाकथित ठेकेदार और महिला संगठन रुचिका को सही न्याय दिलाएंगे ताकि पद के मद में फिर कोई किसी की जिन्दगी से खेलने की हिम्मत न कर सके?
अनिल (२३.१२.२००९ , ५.०० बजे सायं )
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