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Monday, January 4, 2010

यत्र नार्यस्तु पूज्यंते



 कितनी सुहावनी पंक्ति है ये , यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवताः मन को निर्मलता  ,शीतलता देने वाली | वास्तव में हमारे धर्म शाश्त्र ने अगर एक ओर स्त्रियों के लिए अनेक विधि-विधान ,नियम क़ानून नाए हैं तो दूसरी ओऱ उन्हें सम्मान भी प्रदान किए हैं| शाश्त्रो में यदि एक ओर माता अनुसूइया का आदर्श और अनुकरणीय चरित्र िखाया गया है सती -साध्वी नारी होने के कारण ,पतिव्रता होने के कारण ,पर प्रश्न है की ये सब ासिल कैसे हुआ ---पतिव्रता होने के कारण |अपने निजी बाल ,अपनी शक्ति सामर्थ्य से नही, ये शाष्तरों का ही कहना है जबकि सब जानते हैं की वे स्वयं तपस्वनि थी |बिना पुरुष गति नहीं |
तो दूसरी ओर महर्षि गौतम ने अपनी धर्म परायाणा ,पति व्रता पत्नी को मात्र इसलिए त्याग दिया की इंद्र उनका शील भंग करने आए थे कोई नही जनता की इंद्र ने शील भंग किया भी था की नहीं और यदि िया भी था तो इसमें अहल्या का ्या दोष 
शायद हमारी वैदिक संस्कृति में ये स्त्रियों के प्रति अती सम्मान के उदाहरण हैं कहानी तो कहत है कि  
कि महर्षि गौतम ने तो उन्हें पत्थर होने का शाप दिया था ,ये है हमारी नारियों के प्रति 
असीम श्रद्धा भावना ---बेचारी तयुग की प्रताड़ित नारीक़ो ,शापित ,परित्यक्ता को तब 
मुक्ति नसीब हुई जब त्रेता में राम ने जन्म लिया और वे वहाँ पहुंचे |बड़े मज़े की बात तो ये की अहल्या का कल्याण करनेवाले राम ही
सीता को तब वनवास के सम्मान से सुशोभित करते हैं जब वे गर्भिनी होती हैं | हमारे पास अपने बचाव के लिए अनेक हथियार हैं
 सो हम कहेंगे कि राम एक आदर्श राजा थे जिन्हें हर हाल में  भी नहीं अपनी प्रजा का विश्वास जीतना था ,अवश्य --पर क्या पत्नी प्रजा के समकक्ष भी नहीं 
होती और वह प्रजा कैसी जो अपनी महारानी पर ही उगली उठाए क्या  अपवित्र 
आचरण वालो के लिए राजदंड नहीं ा| पत्नी ना हो गयी जागीर हो गई |,धर्म के ठेकेदारों से निपटना मुश्किल है ,
क्योंकि वे इसे लीला का करार दे देगे |लक्ष्मण ने मात्र इसलिए अपनी ही पुत्री के सूहाग को उजाड़ने का ठेका ले लिया था
 कि उसने इंद्र से विवाह करने से इनकार कर दिया था और उसने अपनी मर्ज़ी से मेघनाद से विवाह रच लिया था कितना सुंदर सम्मान है |
   आदर्श महाराज युधिष्ठिर ने जुए जैसी अपवित्र लत में सब कुछ तो हारा हारा अंत में पत्नी को भी दाव पर लगा दिया , 
 समय का बड़ा सुंदर वार्तालाप है द्रोपदि ने पूछा था
 कि क्या महाराज ने स्वयं को हराने के बाद मुझे दाव पर लगाया  ये उनका अधिकार ही नहीं 
बनता, हारा हुआ गुलाम महारानी को दाव पर कैसे लगा सकता है ,पर हमारे नारी का सम्मान करने वाले
 उस तथाकथित राज्य में उसकी बात भला सुनता कौन ?महाराज ने पत्नी को दाव पर लगाकर उसका अभूतपूर्वा सम्मान किया था ऐसे किटने ही सम्मानों से हमारा धार्मिक इतिहास भरा पड़ा है |
मई नही जानती सच या झूठ पर कहानियाँ ही तो है एक कहानी कहती है कि जब देब गण युद्ध में जालंधर
को परास्त ना कर पाए तो विष्णु ने जाकर उसकी पतिव्रता पत्नी का शील भ्रष्ट कर दिया जिससे पति की शक्ति जाती रही और वह युद्ध में मारा गया हमारे देवता भी समय सापेक्ष रास्ते इख्तियार करते हैं फिर वही बात भगवान तो हर हा में भक्तों की रक्षा के लिए उद्धार और उद्धारक कार्य करता है।
 
वेदना उपाध्याय

2 comments:

ghughutibasuti said...

वेदना जी, इतना गहरा सोचना स्त्रियों को शोभा नहीं देता, जैसे जोर से हँसना, जोर से रोना, अपने अधिकारों का रोना रोना आदि आदि।
परन्तु शोभनीय करते करते उकता जाने पर अशोभनीय किन्तु नीतिसंगत करने का समय कब का आ चुका है। अब हमें पूजा नहीं केवल मनुष्य व नागरिक के अधिकार चाहिए।
आपके लेख से सहमत हूँ।
घुघूती बासूती

Mithilesh dubey said...

बहुत खूब , पूर्णतया सहमत हूँ आपसे । लेकिन जरा संभल कर अभी वे आते ही होंगे जो कहते हैं कि रामायण पुरान सब, कथित, पुरानी बाते बकवास हैं।