स्टेशन पर गे परेड
लाखों लोग रोज़ाना दिल्ली में नौकरी करने आते हैं। इसमें महिलाएं भी होती हैं और पुरुष भी। लेकिन इनके बीच एक नस्ल और होती है जो न नर होती है और न मादा। और एक नस्ल का भी प्रचलन अब आर्थिक मंदी के कारण बढ़ता जा रहा है अच्छे खासे नौजवान भी पैसे कमाने के लिए स्त्रियों की तरह व्यवहार करके अपनी रोजी-रोटी चला रहे हैं। कल एक सज्जन मुझे स्टेशन पर मिल गए। मुझसे सट कर चलने लगे और फिर पछने लगे कि सहारनपुर निकल गई क्या,मैंने कहा अभी तो नहीं निकली तो उन्होंने पूछा कि कब निकलेगी मैंने कहा बीस मिनट लेट है तो बोले ये बात है। फिर मैं एक बैंच पर बैठकर ट्रेन का इंतजार करने लगा तो वे भी मेरे ही पास बैठ गए ौर ऐसी हरकते करने लगे जिसे बाकायदा अश्लील कहा जाता है। धीरे-धीरे फुसफुसा रहे थे कि पचास रुपए में मज़े ले लो। मेरा माथा ठनका मैं भुनभुनाता हुआ उस सीट से उठ गया। तब एक सज्जन ने मुझे बताया कि यह गेनर गे है और रोज़ ही स्टेशन पर ग्राहक पटाता है। मुझे लगा कि हम एक तरफ आंकड़ों में तरक्की की नौटंकी पेश कर रहे हैं और दूसरी तरफ लोग अपना यौन शोषण कराकर अपनी जीविका चला रहे हैं। हां हम ऐसे ही लोगों के बीच जी रहे हैं जिन्हें भदेश भाषा में गांडू कहा जाता है। एक रोटी के लिए यहां कौन क्या बेच रहा है पता लगाना भी मुश्किल है। इन बिके हुए लोगों में आदर्श और उसूलों की बातें करने वालों को यदि पागल समझें तो क्या अचरज है।
पं. सुरेश नीरव
2 comments:
भाई यह धंधा पता नहीं कितनी शताब्दियों से चल रहा है। पहले रईस लोग लौंडे पाला करते थे।
यह धंधा तो महानगरों में आम बात है.
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