- कृष्ण कुमार यादव
देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद प्रथम प्रधानमंत्री पं० जवाहर लाल नेहरू इलाहाबाद में कुम्भ मेले में घूम रहे थे । उनके चारों तरफ लोग जय-जयकारे लगाते चल रहे थे । गाँधी जी के राजनैतिक उत्तराधिकारी एवं विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के मुखिया को देखने हेतु भीड़ उमड़ पड़ी थी । अचानक एक बूढ़ी औरत भीड़ को तेजी से चीरती हुयी नेहरू के समक्ष आ खड़ी हुयी- “नेहरू ! तू कहता है देश आजाद हो गया है, क्योंकि तू बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में चलने लगा है । पर मैं कैसे मानूं कि देश आजाद हो गया है? मेरा बेटा अंग्रेजों के समय में भी बेरोजगार था और आज भी है, फिर आजादी का फायदा क्या? मै कैसे मानूं कि आजादी के बाद हमारा शासन स्थापित हो गया है । नेहरू अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्कुराये और बोले-” माता । आज तुम अपने देश के मुखिया को बीच रास्ते में रोककर और ‘तू’ कहकर बुला रही हो, क्या यह इस बात का परिचायक नहीं है कि देश आजाद हो गया है एवं जनता का शासन का शासन स्थापित हो गया है ।” इतना कहकर नेहरू जी अपनी गाड़ी में बैठे और लोकतंत्र के पहरुओं का काफिला उस बूढ़ी औरत के शरीर पर धूल उड़ाता चला गया ।
लोकतंत्र की यही विडंबना है कि हम नेहरू अर्थात लोकतंत्र के पहरूए एवं बूढ़ी औरत अर्थात जनता दोनों में से किसी को भी गलत नहीं कह सकते । दोनों ही अपनी जगहों पर सही हैं, अन्तर मात्र दृष्टिकोण का है । गरीब व भूखे व्यक्ति हेतु लोकतंत्र का वजूद रोटी के एक टुकड़े में छुपा हुआ है तो अमीर व्यक्ति हेतु लोकतंत्र का वजूद चुनावों में अपनी सीट सुनिश्चित करने और अंततः मंत्री या किसी अन्य प्रतिष्ठित संस्था की चेयरमैनशिप पाने में है । यह एक सच्चायी है कि दोनों ही अपने वजूद को पाने हेतु कुछ भी कर सकते हैं । भूखा और बेरोजगार व्यक्ति रोटी न पाने पर चोरी की राह पकड़ सकता है या समाज के दुश्मनों की सोहबत में आकर आतंकवादी भी बन सकता है । इसी प्रकार अमीर व्यक्ति धन-बल और भुजबल का प्रयोग करके चुनावों में अपनी जीत सुनिश्चित कर सकता है । यह दोनों ही लोकतंत्र के दो विपरीत लेकिन कटु सत्य हैं । परन्तु इन दोनों कटु सत्यों के बीच लोकतंत्र कहाँ है, संभवतः एक राजनीति शास्त्री या समाज शास्त्री भी व्याख्या करने में अपने को सक्षम पाये ।
लोकतंत्र विश्व की सर्वाधिक लोकप्रिय शासन-प्रणाली है । संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने कहा था- “जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा शासन ही लोकतंत्र है । ” लोकतंत्र की सबसे बड़ी विशेषता सम्प्रभुता का जनता के हाथों में होना है । जनता ही चुनावों द्वारा तय करती है कि किन लोगों को अपने ऊपर शासन करने का अधिकार दिया जाय । कुछ देशों ने तो इसी आधार पर जनता को अपने प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का भी अधिकार दिया है । यह एक अलग तथ्य है कि आज राजनीतिक दल ही यह निर्धारित करते हैं कि जनता का प्रतिनिधित्व करने की जिम्मेदारी किसे सौंपी जाय । लोकतंत्र में प्रतिनिधित्व की इस अजूबी व्यवस्था के कारण ही नाजीवादी हिटलर एवं मुसोलिनी ने इसे ‘भेड़ तंत्र’ कहा । उनका मानना था कि- “लोकतंत्र वास्तविक रूप में एक छुपी हुयी तानाशाही है, जिसमें कुछ व्यक्ति विशेष जन संप्रभुता की आड़ में यह सुनिश्चित करते हैं कि जनता को किस दिशा में जाना है न कि जनता यह निर्धारित करती है कि उसे किस ओर जाना है ।” इसी कारण उन्होंने लोकतंत्र को जनता की ‘भेड़’ कहा जिसे डंडे के जोर पर जिस ओर हांक दो वह चली जायेगी । आज लोकतंत्र मात्र एक शासन-प्रणाली नहीं वरन् वैचारिक स्वतंत्रता का पर्याय बन गया है । चाहे वह संयुक्त राष्ट्र संघ का ‘मानवाधिकार घोषणा पत्र’ हो अथवा भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त मूलाधिकार हों, ये सभी राज्य के विरूद्ध व्यक्ति की गरिमा की स्वतंत्रता सुनिश्चित करते हैं । यह लोकतंत्र का ही कमाल है कि वाशिंगटन में अमरीकी राष्ट्रपतिके मुख्यालय व्हाइट हाउस के सामने स्पेनिश मूल की वृद्ध महिला कोंचिता ने पिछले तीन दर्शकों से अपनी प्लास्टिक की झोपड़पट्टी लगा रखी है । बुश के साथ-साथ व्हाइट और अमेरिकी नीतियों की कट्टर विरोधी कोंचिता को कोई भी वहाँ से हटाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा है क्योंकि वह फ्रीडम आफ स्पीच की प्रतीक बन गई हैं । राष्ट्रपति रीगन के जमाने में व्हाइट हाउस की बाहरी दीवार से लगा उसका ठिकाना थोड़ा दूर ठेल दिया गया क्योंकि यह रीगन की पत्नी को रास नहीं आया पर आज भी लोगों के लिए व्हाइट हाउस के सामने बसी यह बरसाती आकर्षण का केन्द्र बिन्दु है । वस्तुतः लोकतंत्र मात्र चुनावों द्वारा स्थापित राजनीतिक प्रणाली तक ही सीमित नहीं है बल्कि सामाजिक लोकतंत्र, आर्थिक लोकतंत्र जैसे भी इसके कई रूप हैं । यह जरूरी नहीं कि राजनैतिक रूप से घोषित लोकतंत्रात्मक प्रणाली में वास्तविक रूप में समाजिक एवं आर्थिक लोकतंत्र कायम ही हो । इसी विरोधाभास के चलते ‘सामाजिक न्याय’ एवं समाजवादी समाज’ की अवधारणाओं ने जन्म लिया । भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो यहाँ पर एक लम्बे समय से छुआछूत की भावना रही है- स्त्रियों को पुरूषों की तुलना में कमजोर समझा गया है, कुछ जातियों को नीची निगाहों से देखा जाता है, धर्म के आधार पर बँटवारे रहे हैं । निश्चिततः यह लोकतंत्र की भावना के विपरीत है । लोकतंत्र एक वर्ग विशेष नहीं, वरन् सभी की प्रगति की बात करता है । तराजू के दो पलड़ों की भांति जब तक स्त्री को पुरूष की बराबरी में नहीं खड़ा किया जाता, तब तक लोकतंत्र के वास्तविक मर्म को नहीं समझा जा सकता । भारतीय संविधान में ७३ वें संशोधन द्वारा पंचायतों में महिलाओं को आरक्षण देना एवं संसद में ‘महिला आरक्षण विधेयक’ में महिलाओं को मताधिकार योग्य नहीं समझा गया । क्या महिलायें लोकतंत्र का हिस्सा नहीं हैं? इसी प्रकार समाज के पिछड़े वर्गों को आरक्षण देकर अन्य वर्गों के बराबर लाने का प्रयास किया गया है । 1990 के दशक में भारतीय राजनीति में पिछड़े वर्गों के नेताओं के तेजी से राष्ट्रीय पटल पर छाने को इसी परिप्रेक्ष्य में समझा जाना चाहिए ।
लोकतंत्र जनता का शासन है, पर इन दिनों यह बहुमत का शासन होता जा रहा है । यह सत्य है कि बहुमत ज्यादा से ज्यादा लोगों का प्रतिनिधित्व करता है, पर इसकी आड़ में अल्पमत के अच्छे विचारों को नहीं दबाया जा सकता । लोकतंत्र बहुमत की मनमर्जी नहीं वरन् बहुमत या अल्पमत दोनों के अच्छे विचारों की मर्जी है । प्रतीकात्मक धार्मिक चिह्नों को लोगों में बाँटकर या बाहुबल के आधार पर किसी भी अल्पमत विचार को नहीं दबाया जा सकता । इन विचारों की रक्षा करने हेतु ही विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और प्रेस को लोकतंत्र के चार स्तम्भों के रूप में खड़ा किया गया है । यह भारत जैसे बहुदलीय लोकतंत्र का कमाल ही है कि एक विधायक या सांसद वाली पार्टी सत्ता सुख भोगती है और ज्यादा विधायकों या सांसदों वाली पार्टियाँ विपक्ष में बैठी रहती हैं । सवाल यह नहीं है कि यह सही है या गलत पर यह लोकतंत्र का विरोधाभास अवश्य है । लोकतंत्र के चारों स्तम्भों में संतुलन का सिद्धान्त अवश्य है, एक कमजोर होता है तो दूसरा मजबूत होता जाता है । विधायिका अपने कर्तव्यों का निर्वहन नहीं कर पाती है तो ‘न्यायिक सक्रियतावाद’ के रूप में न्यायपालिका उन्हें निभाने लगती है, कार्यपालिका संविधान के विरूद्ध जाने की कोशिश करती है तो न्यायालय एवं यदि जनभावनाओं के विरूद्ध जाती है तो प्रेस उसे सही रास्ता पकड़ने पर मजबूर कर देता है । निश्चिततः यह अभिनव सन्तुलन ही लोकतंत्र को अन्य शासन प्रणालियों से अलग करता है । वस्तुतः २१ वीं शताब्दी में लोकतंत्र सिर्फ एक राजनैतिक नियम, शासन की विधि या समाज का ढांचा मात्र नहीं है बल्कि यह समाज के उस ढांचे की खोज करने का प्रयत्न है, जिसके अन्तर्गत सामान्य मूल्यों के द्वारा स्वतंत्र व स्वैच्छिक वृद्धि के आधार पर समाज में एकरूपता और एकीकरण लाने के लिए प्रयोग किया जाता है ।
भारत विविधताओं में एकता वाला देश है । जाति, धर्म, भाषा, बोली, त्यौहार, पहनावा, खान-पान सभी कुछ में विविधता है, यही कारण है कि समय-समय पर पृथकतावादी आवाजें भी उठती रही हैं । पर हमने उनका दमन नहीं किया, वरन उनकी भावनाओं को उनके दृष्टिकोण से देखने की कोशिश की एवं अगर यह राष्ट्रीय हित में रहा तो स्वीकारने में संकोच भी नहीं रहा । कश्मीर, भारत-पाक के बीच लम्बे समय से विवाद का विषय बना हुआ है पर हम दमन एवं सैन्य बल द्वारा उसे सुलझाने की बजाय लोकतांत्रिक रास्तों का चुनाव करते हैं । उग्रवादी संगठनों से बातचीत को कुछ लोग कायरता के रूप में देखते हैं, पर यह उनकी भूल है । लोकतंत्र उन्हें हिंसक प्राणी के रूप में नहीं वरन् एक सामान्य व्यक्ति की हैसियत से देखता है, जो कि या तो गुमराह किये गये हैं अथवा उनकी आकांक्षायें पूरी नहीं हुयी हैं । लोकतंत्र उनका तात्कालिक दमन करने की बजाय वार्ताओं द्वारा उनके दूरगामी हल खोजना चाहता है । आज भारतीय लोकतंत्र एक संक्रमणकालीन दौर से गुजर रहा है । तमाम घटनाओं ने बुद्धिजीवियों को यह सोचने हेतु मजबूर कर दिया है कि क्या भारतीय लोकतंत्र और उसकी धर्मनिरपेक्षता खतरे में है? क्या विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा भूल गया है... निश्चिततः नहीं । भारत में लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की जड़ें इतनी कमजोर नहीं हुयी हैं कि वे छोटे-छोटे झटकों से धराशायी हो जायें । हर व्यवस्था के सकारात्मक एवम् नकारात्मक पक्ष होते हैं, सो लोकतंत्र के भी हैं । लोकतंत्र में प्राप्त स्वतंत्रताओं का कुछ लोग थोड़े समय के लिये दुरूपयोग कर सकते हैं, पर एक लम्बे समय तक नहीं क्योंकि यह लोकतंत्र है । जनता हर गतिविधि को ध्यान से देखती है, पर बर्दाश्त से बाहर हो जाने पर वह वयवस्थायें भी बदल देती है । यह भी लोकतंत्र का एक कटु सत्य है ।
लोकतंत्र की यही विडंबना है कि हम नेहरू अर्थात लोकतंत्र के पहरूए एवं बूढ़ी औरत अर्थात जनता दोनों में से किसी को भी गलत नहीं कह सकते । दोनों ही अपनी जगहों पर सही हैं, अन्तर मात्र दृष्टिकोण का है । गरीब व भूखे व्यक्ति हेतु लोकतंत्र का वजूद रोटी के एक टुकड़े में छुपा हुआ है तो अमीर व्यक्ति हेतु लोकतंत्र का वजूद चुनावों में अपनी सीट सुनिश्चित करने और अंततः मंत्री या किसी अन्य प्रतिष्ठित संस्था की चेयरमैनशिप पाने में है । यह एक सच्चायी है कि दोनों ही अपने वजूद को पाने हेतु कुछ भी कर सकते हैं । भूखा और बेरोजगार व्यक्ति रोटी न पाने पर चोरी की राह पकड़ सकता है या समाज के दुश्मनों की सोहबत में आकर आतंकवादी भी बन सकता है । इसी प्रकार अमीर व्यक्ति धन-बल और भुजबल का प्रयोग करके चुनावों में अपनी जीत सुनिश्चित कर सकता है । यह दोनों ही लोकतंत्र के दो विपरीत लेकिन कटु सत्य हैं । परन्तु इन दोनों कटु सत्यों के बीच लोकतंत्र कहाँ है, संभवतः एक राजनीति शास्त्री या समाज शास्त्री भी व्याख्या करने में अपने को सक्षम पाये ।
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लोकतंत्र जनता का शासन है, पर इन दिनों यह बहुमत का शासन होता जा रहा है । यह सत्य है कि बहुमत ज्यादा से ज्यादा लोगों का प्रतिनिधित्व करता है, पर इसकी आड़ में अल्पमत के अच्छे विचारों को नहीं दबाया जा सकता । लोकतंत्र बहुमत की मनमर्जी नहीं वरन् बहुमत या अल्पमत दोनों के अच्छे विचारों की मर्जी है । प्रतीकात्मक धार्मिक चिह्नों को लोगों में बाँटकर या बाहुबल के आधार पर किसी भी अल्पमत विचार को नहीं दबाया जा सकता । इन विचारों की रक्षा करने हेतु ही विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और प्रेस को लोकतंत्र के चार स्तम्भों के रूप में खड़ा किया गया है । यह भारत जैसे बहुदलीय लोकतंत्र का कमाल ही है कि एक विधायक या सांसद वाली पार्टी सत्ता सुख भोगती है और ज्यादा विधायकों या सांसदों वाली पार्टियाँ विपक्ष में बैठी रहती हैं । सवाल यह नहीं है कि यह सही है या गलत पर यह लोकतंत्र का विरोधाभास अवश्य है । लोकतंत्र के चारों स्तम्भों में संतुलन का सिद्धान्त अवश्य है, एक कमजोर होता है तो दूसरा मजबूत होता जाता है । विधायिका अपने कर्तव्यों का निर्वहन नहीं कर पाती है तो ‘न्यायिक सक्रियतावाद’ के रूप में न्यायपालिका उन्हें निभाने लगती है, कार्यपालिका संविधान के विरूद्ध जाने की कोशिश करती है तो न्यायालय एवं यदि जनभावनाओं के विरूद्ध जाती है तो प्रेस उसे सही रास्ता पकड़ने पर मजबूर कर देता है । निश्चिततः यह अभिनव सन्तुलन ही लोकतंत्र को अन्य शासन प्रणालियों से अलग करता है । वस्तुतः २१ वीं शताब्दी में लोकतंत्र सिर्फ एक राजनैतिक नियम, शासन की विधि या समाज का ढांचा मात्र नहीं है बल्कि यह समाज के उस ढांचे की खोज करने का प्रयत्न है, जिसके अन्तर्गत सामान्य मूल्यों के द्वारा स्वतंत्र व स्वैच्छिक वृद्धि के आधार पर समाज में एकरूपता और एकीकरण लाने के लिए प्रयोग किया जाता है ।
भारत विविधताओं में एकता वाला देश है । जाति, धर्म, भाषा, बोली, त्यौहार, पहनावा, खान-पान सभी कुछ में विविधता है, यही कारण है कि समय-समय पर पृथकतावादी आवाजें भी उठती रही हैं । पर हमने उनका दमन नहीं किया, वरन उनकी भावनाओं को उनके दृष्टिकोण से देखने की कोशिश की एवं अगर यह राष्ट्रीय हित में रहा तो स्वीकारने में संकोच भी नहीं रहा । कश्मीर, भारत-पाक के बीच लम्बे समय से विवाद का विषय बना हुआ है पर हम दमन एवं सैन्य बल द्वारा उसे सुलझाने की बजाय लोकतांत्रिक रास्तों का चुनाव करते हैं । उग्रवादी संगठनों से बातचीत को कुछ लोग कायरता के रूप में देखते हैं, पर यह उनकी भूल है । लोकतंत्र उन्हें हिंसक प्राणी के रूप में नहीं वरन् एक सामान्य व्यक्ति की हैसियत से देखता है, जो कि या तो गुमराह किये गये हैं अथवा उनकी आकांक्षायें पूरी नहीं हुयी हैं । लोकतंत्र उनका तात्कालिक दमन करने की बजाय वार्ताओं द्वारा उनके दूरगामी हल खोजना चाहता है । आज भारतीय लोकतंत्र एक संक्रमणकालीन दौर से गुजर रहा है । तमाम घटनाओं ने बुद्धिजीवियों को यह सोचने हेतु मजबूर कर दिया है कि क्या भारतीय लोकतंत्र और उसकी धर्मनिरपेक्षता खतरे में है? क्या विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा भूल गया है... निश्चिततः नहीं । भारत में लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की जड़ें इतनी कमजोर नहीं हुयी हैं कि वे छोटे-छोटे झटकों से धराशायी हो जायें । हर व्यवस्था के सकारात्मक एवम् नकारात्मक पक्ष होते हैं, सो लोकतंत्र के भी हैं । लोकतंत्र में प्राप्त स्वतंत्रताओं का कुछ लोग थोड़े समय के लिये दुरूपयोग कर सकते हैं, पर एक लम्बे समय तक नहीं क्योंकि यह लोकतंत्र है । जनता हर गतिविधि को ध्यान से देखती है, पर बर्दाश्त से बाहर हो जाने पर वह वयवस्थायें भी बदल देती है । यह भी लोकतंत्र का एक कटु सत्य है ।
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