शेष नारायण सिंह
ज्योति बसु नहीं रहे। 95 साल की उम्र में उन्होंने अलविदा कहा। अपने राजनीतिक जीवन में उन्होंने बहुत सारी बुलंदिया तय कीं जो किसी भी राजनेता के लिए सपना हो सकता था। 1977 में काग्रेस की पराजय के बाद उन्हें पश्चिम बंगाल का मुख्य मंत्री बनाया गया था और जब शरीर कमजोर पड़ने लगा तो उन्होंने अपनी मर्जी से गद्दी छोड़ दी और बुद्धदेव भट्टाचार्य को मुख्यमंत्री बना दिया गया। 1977 के बाद का उनका जीवन एक खुली किताब है। मुख्यमंत्री के रूप में उनका सार्वजनिक जीवन हमेशा कसौटी पर रहा, लेकिन उनको कभी किसी ने कोई गलती करते नहीं देखा, न सुना। 1996 की वह घटना दुनिया जानती है, जब वे देश के प्रधान मंत्री पद के लिए सर्वसम्मत उम्मीदवार बन गए थे, लेकिन दफ्तर में बैठकर राजनीति करने वाले कुछ साचाबद्ध कम्युनिस्टों ने उन्हें रोक दिया। अगर ऐसा न हुआ होता तो देश देवगौड़ा को प्रधान मंत्री के रूप में न देखता। बहरहाल बाद के समय में यह भी कहा कि 1967 में प्रधानमंत्री पद न लेना मार्क्सवादियों की ऐतिहासिक भूल थी। उस हादसे को ऐतिहासिक भूल मानने वालों में भी बहुत मतभेद है।
1977 में मुख्य मंत्री बनने के बाद वे एक राज्य के मुखिया थे, लेकिन राष्ट्रीय राजनीति पर उनकी पकड़ हमेशा बनी रही। 1989 में जब राजीव गांधी की काग्रेस चुनाव हार गई, तो आम तौर पर माना जा रहा था कि कोई भी सरकार बनाना बहुत ही मुश्किल है।
वीपी सिंह को ज्यादातर विपक्षी पार्टिया प्रधानमंत्री बनाने की कोशिश में थीं, लेकिन यह समझ में नहीं आ रहा था कि लेफ्ट फ्रंट और बीजेपी एक ही सरकार का कैसे समर्थन करेंगें? ज्योति बसु ने बार-बार कहा था कि बीजेपी पूरी तरह से सांप्रदायिक पार्टी है, तो कैसे जाएंगें उनके साथ, लेकिन ज्योति बसु और हरकिशन सिंह सुरजीत ने मिलकर ऐसा फार्मूला बनाया कि बीजेपी को वीपी सिंह को बाहर से समर्थन करने में कोई दिक्कत नहीं रह गई।
प्रणय राय के साथ एक टेलीविजन कार्यक्रम में सुरजीत ने ऐलान कर दिया था कि वे वीपी सिंह को प्रधान मंत्री बनाने को तैयार हैं बशर्ते कि उस में बीजेपी का कोई मंत्री न हो। बस बन गई सरकार। बहुत सारी यादें है ज्योति बाबू की जिन्होंने पिछले कई दशकों की भारतीय राजनीति को प्रभावित किया है।
ज्योति बसु को कुछ लोग बहुत ही भाग्यशाली मानते थे, क्योंकि जिंदगी में हमेशा उन्हें महत्व मिला। भारतीय राजनीति के निराले व्यक्तित्व थे ज्योति बसु उन्होंने अपना पहला चुनाव 1946 में लड़ा था। चुनाव जीते भी, लेकिन यह महत्वपूर्ण नहीं है। इस चुनाव में उन्होंने प्रोफेसर हुमायूं कबीर को हराया था जो मौलाना आजाद के बहुत करीबी थे। बाद में वे नेहरू की मंत्रिपरिषद में मंत्री भी बने। उसी वक्त से वे बंगाल के नौजवानों के हीरो बने, तो बहुत दिनों तक श्रद्धा के पात्र बने रहे।
कोलकाता के नामी सेंट जेवियर कालेज में पढ़ाई पूरी करने के बाद वे इंग्लैंड गए, जहा उन्होंने कानून की पढ़ाई की। लंदन में उनके समकालीनों में इंदिरा गांधी, फीरोज गांधी, वी के कृष्ण मेनन और भूपेश गुप्ता जैसे लोग थे।
लंदन के विश्व विख्यात लिंकल इंस्टीट्यूट से पढ़ाई पूरी करने के बाद जब वे कोलकाता आए, तो कुछ दिन छोटी-मोटी वकालत करने के बाद ट्रेड यूनियन के काम में जुट गए। उन्होंने कम्युनिस्ट विचारधारा को चुना था और दिल्ली दरबार की कभी परवाह नहीं की। एक बार केंद्र सरकार से पश्चिम बंगाल के लिए केंद्रीय सहायता की बात करने दिल्ली पंहुचे ज्योति बसु से किसी केंद्रीय मंत्री ने शिकायत भरे लहजे में कहा कि आप समस्याएं ही गिनाते हैं, कभी कोई हल नहीं बताते, ज्योति बाबू का जवाब तुरंत मिल गया, 'जब हम आपकी सीट पर बैठेंगें, तब हल भी बताएंगें।'
वामपंथी राजनीति के शिखर पर पंहुचने के पहले उन्होंने बंगाल में समाज हर वर्ग में क्रांतिकारी परिवर्तन की पहल की थी। राजनीति के ऊंच-नीच से होते हुए वे 1967 और 1969 की गैर काग्रेसी सरकारों में मंत्री रहे। चुनाव हारे भी, लेकिन कभी हार नहीं मानी। पार्टी के अंदर भी उन्हें बहुत संभल कर चलना पड़ता था, उनकी राज्य पार्टी के बास प्रमोद दासगुप्ता थे। एक बार उन्होंने घोषणा कर दी कि अगर केंद्रीय गृह मंत्री एस बी चह्वाण, कोलकाता आए तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाएगा। मुख्यमंत्री ज्योति बसु के लिए दासगुप्ता की यह टिप्पणी बहुत ही मुश्किल थी, लेकिन उन्होंने बात को संभाला।
एक बार प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने कहा कि आपके ऊपर मुझे पूरा भरोसा है, लेकिन आपके कुछ सहयोगियों के बारे में यह नहीं कहा जा सकता।
उन्होंने बार-बार कहा कि हमारी पार्टी क्रांति में विश्वास करती है, लेकिन हमने फिलहाल संसदीय लोकतंत्र का रास्ता चुना है। मार्क्सवाद की मूल विचारधारा में संसदीय पद्धति को घुसाने का आरोप सभी वामपंथी पार्टियों पर लगता रहा है, लेकिन अपने कार्यकर्ताओं को उन्होंने हमेशा इस दुविधा से बाहर का राष्ट्र ढूंढने, आलोचना से बच निकलने में मदद की।
ज्योति बसु निजी तौर पर भी बहुत बहादुर इंसान थे। 1969 में एक बार कोलकाता में पुलिस वालों ने विद्रोह कर दिया था, उन्होंने विधानसभा को ही घेर लिया। मंत्री लोग भागने लगे, लेकिन ज्योति बसु ने पुलिस वालों को हड़का कर भगा दिया था। विपक्षी के सामने अड़े रहने की उनकी खासियत अंत तक बनी रही। हमेशा अपनी बात को सोच-समझकर और सही तरीके से कहने वाले ज्योति बाबू ने मार्क्सवादी पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र को बहुत संभाला था।
आने वाले दिनों में इस मोर्चे पर भी राजनीतिक बिरादरी उनकी कमी को महसूस करेगी।
[लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं]
सौजन्यः दैनिक जागरण
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