मित्रों,
सुरेश नीरव जी का लेख पढ़ा और उस पर पाण्डेय जी, भगवान सिंह हंसजी और मधुजी के विचार भी पढ़े।
मेरा मानना है कि प्रासंगिक होते हुए भी 'भदेस' शब्दों के प्रयोग से यथासंभव बचा जाना चाहिए। हिंदी प्राचीन काल से ही अत्यंत समृद्ध और शालीन भाषा रही है। इसमें मानवीय जीवन से जुड़े हर पहलु के सन्दर्भ में प्रचुर मात्रा में शब्द हैं, वो बात और है कि समय के साथ कई शब्द प्रचलन से बाहर हो गए और बोल-चाल की भाषा में प्रयुक्त होने वाले शब्दों ने उन्हें नेपथ्य में धकेल दिया। यौन विकृतियाँ नए ज़माने की देन नहीं हैं। मानव समाज में ये पहले से मौजूद रहीं हैं। जो शब्द नीरवजी ने प्रयोग किया है, हर शब्द की तरह उसके पर्यायवाची शब्द भी होंगे। उदाहरण के लिए पहले ज़माने में इस यौन विकृति के लिए 'नवाबी शौक' शब्द भी इस्तेमाल किया जाता था। कहने का तात्पर्य ये कि विचारों की अभिव्यक्ति के लिए असंयमित भाषा का प्रयोग जरूरी नहीं। सही शब्दों के चयन और विचारों की संजीदा अभिव्यक्ति के जरिये कोई भी बात उसके अन्तर्निहित संदर्भों के साथ बखूबी कही जा सकती है, ऐसा मेरा मानना है। बाकी आप सब महानुभाव जैसा उचित समझें।
अनिल (१८.०१.२०१० सायं ४.३० बजे )
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