शब्दों की प्रासंगिकता को लेकर पांडेजी ने एक बहस की शुरुआत की है जो बड़ी सार्थक है और इस बहाने कुछ तथ्य सामने निकल कर आएं यही कोशिश ब्लॉग के जरिए होनी चाहिए। जहां तक मेरा विचार है शब्द के अर्थ हमारी अवधारणाओं और पूर्वाग्रहों के हिसाब से रूढ़ हो जाते हैं। और सीमित भी। शब्दों को हमेशा संदर्भ और प्रसंग के हिसाब से ही देखना चाहिए। बिना संदर्भ के शब्दों का अपना कोई वजूद होता भी नहीं है। मैं जब शोध कर रही थी तब मुझे ऐसे कई षब्दों से होकर गुजरना पड़ा जिसका कि आज को दौर में अर्थ बहुत ही अश्लील -सा हो गया है पर वे शब्द मंत्र में प्रयुक्त हैं। जैसे कि प्रचोदयात शब्द गायत्री मंत्र में है मगर अलग से यदि उसे देखें तो आप समझ सकते हैं कि उसका अर्थ क्या निकाला जाएगा। बाल शब्द को बांग्ला में बहुत अश्लील मानते हैं। ऋग्वेद में ऐसे कई शब्द हैं जिनके अर्थ निधंटु से ही समझे जा सकते हैं इसलिए इन विषयों पर बहस यदि स्वस्थ्य मन से की जाए तो कई नए शब्दों से जान-पहचान होती है वरना यूं ही चकल्लस होकर रह जाती है। पांडेजी ने नई शुरूआत कराकर एक अच्छा ही काम किया है और नीरव जी ने इसका अवसर मुहैया कराकर नई चेतना फैलाई दोनों ही को प्रणाम॥
मधु चतुर्वेदी
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