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Friday, January 22, 2010

पत्थर इतने आए, लहू- लुहान हुई ज़ख़्मी कोयल क्या कूके अमराई में।

अनिलजी आपकी ग़ज़ल बेहतरीन है। मैं दिल से आपको  मुबारकबाद देता हूं

क्या उम्मीदें बांध कर आया था सामने
उस ने तो आँख भर के देखा नहीं मुझे


मकबूलजी वाह-वाह... इन शेरों के लिए...
बादल, तितली, धूप, घास, पुरवाई में
किस का चेहरा है इन की रानाई में।

तुम तो कहते थे हर रिश्ता टूट चुका
फिर क्यों रोये, रातों की तन्हाई में।
आज आप दौनों की रचनाएं देखकर मज़ा आ गया।
पं. सुरेश नीरव

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