भीगी हुई आँखों का ये मंज़र न मिलेगा
घर छोड़ के मत जाओ, कहीं घर न मिलेगा।
फिर याद बहुत आएगी, ज़ुल्फों कि घनी शाम
जब धूप में साया कोई सर पर न मिलेगा।
आंसू को कभी ओस का कतरा न समझना
ऐसा तुम्हें चाहत का समंदर न मिलेगा।
इस ख्वाब के माहौल में बेख्वाब हैं आंखें
बाज़ार में ऐसा कोई ज़ेवर न मिलेगा।
ये सोच लो अब आखरी साया है मोहब्बत
इस दर से उठोगे तो कोई दर न मिलेगा।
बशीर बद्र
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
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