सहारनपुरवाली ने बड़ौ दुख दीनौ
कम ही लोग होते हैं जो अपनी मुहब्बत के राज को उजागर करते हैं मैं उन्हीं दुर्लभ लोगों में से एक हूं जो अपनी मुहब्बत का खुल्लमखुल्ला इजहार करने की दम-खम रकते हैं। सहारनपुरवाली से मेरी पहली मुलाकात आज से पच्चीस साल पहले नई दिल्ली से पहले पड़नेवाले स्टेशन शिवाजी ब्रिज पर हुई थी। मैं ऑफिस से निकला था और प्लेटफार्म पर टहल रहा था। किसी ऐसी ट्रेन का इंतजार था जो इस समय मिल जाए। तभी प्लेटफॉर्म पर सांवली सलौनी बलखाती,मदमाती वह मुझे सरपट दौड़ती-सी दिखाई दी। मुझे लगा यूं ही भटक रही है पर विश्वस्त सूत्रों से मालूम पड़ा कि उसका यहां रोज़ ही आना-जाना रहता है और उसकी एक झलक पाने के लिए तमाम शोदे रोज़ ऑफिस से छूटते ही यहां तफरी करने चले आते हैं। मुहब्बत के बाजार में जब उसने आपनी कीमत को आंका कि इतले लोग उसे चाहते हैं तो उसने भी नखरे दिखाने शुरू कर दिए। समय दे सात का तो आए नौ बजे। मगर चाहनेवालों की चाहत भी देखिए कि लोग प्लेटफार्म पर उसके इंतजार में डटे ही रहते। ये दिखाने को कि वे उसके इंतजार में नहीं हैं कुछ लोग चाय,पकौड़े खाकर अपनी झेंप मिटाते रहते मगर समझदार लोग ताड़ ही लेते कि माजरा क्या है। धीरे-धीरे लोग मेरी असलियत भी समध गए कि जनाब सहारनपुरवाली के चक्कर में हैं और रोज़ शिवाजी ब्रिज इसी लिए आते हैं। हमारे जुनून और सहारनपुरवाली की बढ़ती बेरुखी के बीच एक मेरठवाली खाला ने भी मेरी तरफ पेंगें बढ़ाना शुरू कर दी मगर मुझे उसके चाल-ढाल कभी नहीं भाए और मैं उसके चक्कर में कभी नहीं पड़ा। आज पच्चीस साल हो गए मगर मैंने अपनी सहारनपुरवाली का दामन नहीं छोड़ा और आज भी बाकायदा उसका मुंतजिर हूं। आज भी और आनेवाले समय तक। मुझे आज भी लोग कड़कड़ाती सर्दी और गर्मी में उसका इंतजार करते देखते रहते हैं। और वो कभी टाइम पर नहीं ाती तो मजाक बनाते हैं और कभी टाइम देकर पहले ही बंक मारकर चली जाती है तब भी लोग मज़ाक उड़ाते हैं मगर मैं अपने दिल के हाथों मजबूर हूं क्या कर सकता हूं। आप सोच रहे होंगे कि आखिर यह सहारनपुरवाली हैं कौन। तो जनाब बता दूं वह है मेरी ई.एम.यू. जो रोज़ मुझे दिल्ली सो ग़ज़ियाबाद लेकर जाती है। समझ गए न भाई साहब.।
पं. सुरेश नीरव
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