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Monday, January 11, 2010

मेरे कहकहों की ज़द पर, कभी गर्दिशें जहां की

मोईन अहसन जज़्बी  की शानदार गजल के पढ़वाने का मकबूलजी को शुक्रिया। मुझे से शेर बहुत पसंद आए-

कभी दर्द की तमन्ना, कभी कोशिशे- मदावा
कभी बिजलियों की ख्वाइश, कभी फिक्रे- आशियाना।
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मेरे कहकहों की ज़द पर, कभी गर्दिशें जहां की
मेरे आंसुओं की रौ में, कभी तल्खी-ऐ- ज़माना।
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भाई राजमणिजी
जगदीशजी की रचना में मुक्त छंद होने के बावजूद एक लयात्मकता है। रचना मुझे भवानी भाई की याद दिला गई और इन पंक्तियों में तो गजल का लुत्फ आ गया गजब का लुत्फ आ गया-

ऊपर वाले तेरी दुनिया कितनी अजब निराली है
कोई समेट नहीं पाता है किसी का दामन खाली है

पं. सुरेश नीरव


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सापेक्ष

सापेक्ष प्रकाशन उत्कृष्ट साहित्य के प्रकाशन को प्रतिबद्ध 
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