Search This Blog

Tuesday, January 5, 2010

खिलाड़ी दोस्त तथा अन्य कविताएँ‘



हरेप्रकाश उपाध्याय के पहले संकलनखिलाड़ी दोस्त तथा अन्य कविताएँपर एक फौरी पड़ताल
2000 के बाद की युवा कविता में जिन कवियों ने सबसे अधिक प्रभावित किया है, मेरे लिए उनमें हरेप्रकाश उपाध्याय का नाम बहुत ख़ासहै. उन्हें तीसरा अंकुर मिश्र कविता पुरस्कार मिला और अभी हाल में ही भारतीय ज्ञानपीठ से उनका पहला संकलन खिलाड़ी दोस्त तथा अन्य कविताएँ नाम से आया है. यह किताब सबसे पहले तो हिंदी कविता के भविष्य के प्रति आश्वस्त करती है, जो मेरे लेखे किसी भी युवतर कवि की एक बड़ी सफलता है. आज के युग में जब कुछ भी आश्वस्त नहीं करता – न समाज, न राजनीति, न धर्म, न आध्यात्म, न बाज़ार, न जीवन, न उसके घुटे-घुटे संघर्ष और न ही कुछ विशिष्ट और हिंसक रूढ़ियों में अनायास ही दम तोड़ता दीखता विचार – तब एक नवतुरिया कवि की कविता का यूँ आश्वस्त करना एक बड़ी बात है.
मैं शुरूआत में ही यह कहना चाहूँगा कि विशिष्टिताओं और बेहद ख़ास हुनरमंदियों के समय में हरेप्रकाश की कविता बहुत विनम्रता से आम, सामान्य और सहज बने रहने का आग्रह अपने और हमारे सामने रखती है. उसके लिए किसी ख़ासतरह की मूल्यांकन या समीक्षा पद्धति का प्रयोग भी इस अर्थ में सम्भव नहीं. उसे उतनी ही सहजता से देखना होगा जितनी सहजता से वह रची गई. उसके लिए कोई आप्त वाक्य नहीं और कोई विदग्ध भाषा नहीं. उसमें कोई बड़ा चमत्कार नहीं, वह आपसे सिर्फ़ थोड़ा मनुष्य होने की माँग करती है बस. और यह माँग अपने साथ एक संसार रचती है, बल्कि रचने से ज़्यादा खोजती है – वह संसार जिसे हम कभी भूल जाते हैं तो कभी जानबूझकर पीछे छोड़ जाते हैं. हरे की कविता हमारे क़रीब आती है और कहती है – लो! यह कुछ ज़रूरी चीज़ें हैं, जिन्हें आप आगे आने की हड़बड़ी में पीछे छोड़ या गिरा आए हैं!
संग्रह की पहली ही कविता में हरे ने वह परिदृश्य स्पष्ट कर दिया है, जिसमें रहकर वह कविता लिखते हैं. यहाँ समाज, राजनीति, धर्म और नैतिक जीनवनमूल्यों के ढाँचे की कड़ी परीक्षा है. यहाँ एक सफ़ेदपोश हवा में भाषण दे रहा है और उसी हवा में धूल उड़ रही है, पत्ते झड़ रहे हैं जबकि मौसम पतझड़ का नहीं, बसन्त का है (संग्रह की पहली कविता, पृ. 12). बसन्त के छीजने का अत्यन्त काव्यात्मक और कलात्मक चित्रण कभी भोपाल गैस त्रासदी के सन्दर्भ में राजेश जोशी ने किया था जबकि उनसे कुछ पहले गोरख ने भड़ुआ बसन्त के रूप में कहीं अधिक ठोस और ठेठ अभिव्यक्ति की थी. हरे की अभिव्यक्ति दोनों से अलग एक उदासीन अभिव्यक्ति है, किंतु उसका प्रभाव उतना ही मुखर है. भाषण देने वाला और उसका भाषण देना कितने स्तरों पर किस तरह प्रभावी होता जा रहा है, हरे ने भले ही इसकी एक प्राथमिक सूचना रिपोर्ट भर दर्ज़ की है, लेकिन उसके सबसे सटीक अर्थसंन्दर्भाें के साथ. वह ये भी दर्ज़ करते हैं कि दशहरा है और बकरीद है लेकिन जब दोनों आमने-सामने हों तो दोनो की मिट्टी पलीद है (वही, पृष्ठ – वही). समकालीन भारत में यह मुहावरा एक अंतिम खीझ और अबूझ मानवीय हताशा के साथ कविता में प्रवेश करता है और पाठक के लिए इस महादेश के सबसे बड़े सामाजिक-राजनीतिक संकट की पूरी तफ़सील खोल देता है. ख़ासबात यह कि कवि ने महज अपनी खीझ और हताशा आपके सामने रखी है. उसकी पृष्ठभूमि, पहले से ज्ञात वजूहात और किसी सपाट समाधान की बात वह नहीं करता बल्कि आपके भीतर की बंद या अधखुली खिड़की को झटक कर खोल देता है, जहाँ से आपको उस उचाट विस्तार में ख़ुदही देखना है और जाहिर है कि ख़ुद का देखा ही अंतत: आपके काम आता है. दूसरे शब्दों में यही और इतनी ही हरेप्रकाश की कविता की राजनीति है. बाक़ी राजनीति के बारे उनकी मान्यता जानने के लिए पढिए संग्रह में उनकी अड़तालीसवीं कविता पृष्ठ 112 पर.
प्रश्नाकुलता आज की कविता की एक बड़ी शर्त है. मुक्तिबोध भी अपने समय में ‘‘प्रश्नचिन्हों के बौखला’’ उठने को पूरी आकुलता के साथ रेखांकित कर चुके हैं. आज इन प्रश्नों का ज़्यादा जटिल और वैश्विक रूप हमारे सामने है, जिन्हें हम अपने नितान्त स्थानीय संघर्षों के बरअक्स लगभग अनदेखा कर दे रहे हैं. ऐसे में अत्यन्त संतोष का विषय है कि हरे की कविता पूछने की प्रक्रिया पर पूरा भरोसा करती है. “‘यह पूछो कि पानी में/अब कितना पानी है/आग में कितनी आग/आकाश अब भी कितना आकाश है” (संग्रह की दूसरी कविता,पृष्ठ – 14). पानी, आग और आकाश के ये प्रश्न पहले तो एक काव्यात्मक अभिव्यक्ति का प्रयास भर लगते हैं लेकिन पानी में डूबने-उबरने, आग में जलने-बचने और सिर के ऊपर आकाश के रुकने-भागने के व्यवहारिक दृश्य सामने आते ही इस अभिव्यक्ति के तर्क प्रकट होने लगते हैं. तर्क के सहारे की इच्छा और परवाह आज की ‘नई कविता’ आमतौर पर नहीं करती. वहाँ धरती पर मानवजाति का करोड़ों साल से रहना बड़ी आसानी से बताया जा सकता है (पिछले या उससे पिछले महीने कथादेश में शहंशाह आलम की एक कविता). कवि परवाह नहीं करता कि धरती का विकासक्रम क्या है, उसे तो बस आह भर कर एक भावुक या भावोत्तेजित बयान भर देना है. यह एक अनायास उदाहरण भर था, हमारे आसपास ऐसी कई कई कविताएँ हैं. इस परिदृश्य में हरे का प्रश्नाकुल होने के साथ-साथ एक सामान्य तर्क को थामे रह कर अपने परिवेश और हलचलों का पड़ताल करने का तरीका उतना काव्यात्मक न होने के बावजूद आश्वस्त करता है.
संग्रह के पृष्ठ 62 पर मौजूद ‘ख़बरें छप रही हैं’ शीर्षक कविता मुझे बहुत पसन्द है.
रात चढ़ रही है
और ख़बरें छप रही हैं
ख़बरों में हमारा जो बहता हुआ ख़ून है
फूटा हुआ माथा है
हमारी ऐंठी सूखी हुई अँतड़ियाँ हैं
हमारा जो पसीना है
जो हमें मिट्टी से जोड़ता है
और यह जो अँधेरा है इक्कीसवीं सदी का
बढ़े हुए धन का/बढ़े हुए मन का
छुपाया जा रहा है काली स्याही में
छुपाया जा रहा है
हमारा वजूद तमाम यातनाओं के इतिहास के साथ
इस किताब में यह हरे का उत्कर्ष है. ग़ौर कीजिए कि रात ‘हो’ नहीं रही है, ‘घिर’ भी नहीं रही बल्कि ‘चढ़’ रही है. इस पद पर ख़ासध्यान दीजिए. वह एक प्राकृतिक संघटना का हिस्सा भर नहीं – आम जन और उसके संघर्षों-आकांक्षाओं को पददलित करने वाली तानाशाह ताक़तों का प्रतिरूप भी है. यहीं वो अनिवार्य पसीना भी है, जो मनुष्य को उसकी मिट्टी से जोड़ता है, जो बताता कि आम भारतीय जन कहाँ और कैसा है. दुनिया भर में विचार सरणियों के षड़यंत्रपूर्ण परिवर्तन के दावों के बीच यह इक्कीसवीं सदी के अँधेरे की रात है. ब्रेख़्त ने कभी इसी अँधेरे के बारे में गाए जाने का निर्देश अपनी एक कविता में किया था. यहाँ बढ़ा हुआ धन है, पूँजी का अंतहीन दुश्चक्र है और उसमें फँसते बढ़े हुए मन हैं, जो अपने मूल जीवनचक्र की जटिलताओं को भूल एक अपेक्षाकृत सुविधापूर्ण, समृद्ध और सरल भविष्य का स्वप्न देख रहे हैं – ऐसा स्वप्न, जिसे वास्तविकता की पहली परत पर ही उनके जीवन के सबसे बड़े ‘दुस्वप्न’ में बदल जाना है. इस कविता के ब्यौरों में मैं यहाँ बहुत दूर तक नहीं जाऊँगा पर चाहूँगा कि इस पर चर्चा हो. वास्तव में यह कवि के कार्यस्थल की ऐसी कविता है जो बहुत धीरे बहुत चुपके दुनिया के वधस्थलों की शिनाख़्त की ओर बढ़ चलती है.
इस संग्रह का एक अपना स्त्रीसंसार भी है, जो शरीर और प्रेम के अलावा है. यहाँ औरतें, हमारे गाँव में लड़कियाँ, एक लड़की, बच्चियाँ:कुछ दृश्य, क्या ऐसी स्त्री को जानते हैं आदि ऐसी कविताएँ हैं, जो जीवन और कविता में स्त्रियों के अनिवार्य और आत्मीय अस्तित्व को प्रमाणित करती हैं. जबकि कुछ कवियों ने अपनी स्त्री विषयक कविताओं को अपने सबसे ज़्यादा चलनेवाले सिक्के रूप में अविष्कृत किया है, तब हरे का यह संतुलित सहज समर्पण कुछ और मूल्यवान हो जाता है.
हरे की कविता में जगह जगह एक सहज व्यंग्य भी है, जो निश्चित रूप से उनके गाँव-जवार और उसमें पनपे उनके व्यक्तित्व की गवाही देता है. यहाँ उस कविता का नाम लिया जा सकता है, जिसका संग्रह के शीर्षक में उल्लेख है. क्या कहेंगे उसे – इधर बीच लगातार पनपी भूमंडलीकृत विश्वासघाती मित्रसंस्कृति के बारे में एक ‘खिलन्दड़ी कविता’(?) जो अपने ट्रीटमेंट में उतनी ही मार्मिक भी है. हालाँकि मैं ‘‘मिट्टी की सुगंध’’ जैसे घिसेपिटे पद का प्रयोग नहीं करना चाहता पर एक ठेठपन हरेप्रकाश में हमेशा मौजूद है – विषयों में, मुहावरों में और प्रस्तुति की प्रविधियों में – उसकी शिनाख़्त बहुत आसान है. अपने लेखन में वे अपना पता देते हैं. ज़रा जाँच-पूछकर देखिए हमारे बड़कउ-छुटकउ सब तरह के कवियों में आख़िर कितने कवि अपनी कविता में अपना पता देते हैं !
इस छोटी-सी टिप्पणी के अंत में हरे के ही शब्दों में
कौन है, कौन-कौन है, नहीं पता
पर कोई है जो मेरे कौर छीन रहा है
जो लगातार हाँक रहा है मेरे ठौर से
और मेरे गाँव को छितरा है
(संग्रह की अड़तीसवीं कविता, पृष्ठ 95). दरअसल हरे की कविता अपनी पूरी ऊर्जा, बेचैनी और कला में इसी ‘‘कौन’’ की एक अनन्तिम तलाश है.

No comments: