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Tuesday, January 5, 2010

सिक्के नहीं हों पास तो नारे उछालिये

कर्नल साहब 
आप की खालिस उर्दू जबान का जायजा लेकर मैं बहुत मुतमइन  और मुतास्सिर हूं। क्या शीरीनी नजाकत,नफासत और लताफत है पढ़कर मज़ा आ गया।जुबान की इतनी शाइस्तगी आपके पायेदार अदीब होने की एक बेशकीमती मिसाल है। और ग़ज़ल भी बहुत पुरकशिश लुत्फ से अंदोज़ है। मेरे सलाम कबूल करें। और इन पंक्तियों के तो कहने ही क्या हैं-
आम आदमी को सलीब पर तो चदाया है ,
पर उसे किसीने खुदा नहीं बनाया है ।
लिआकात नहीं हो पास तो सियासत सम्हालिए
सिक्के नहीं हों पास तो नारे उछालिये।

राजमणि साहब ने एक लंबे अंतराल के बाद आज एंट्री ली है और वह भी धमाकेदार। विनोद तिवारी की ग़ज़लें ला जवाब हैं खासकर ये पंक्तियां-
रात रोते हुए कटी यारो
अब भी दुखती है कनपटी यारो
हमने यूँ ज़िंदगी को ओढ़ा है
जैसे चादर फटी-फटी यारो
आज मकबूलजी अभी तक नहीं दिखे हैं। इंतजार है...

पं. सुरेश नीरव

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