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Wednesday, January 13, 2010

कुछ रुबाइयां

द्वार तक जाना पहुँच सत्कार कैसे मान लूं,
फूल की इक पंखुरी को हार कैसे मान लूं।
फूल कैसे मान लूं, पत्थर उठाए जो ह्रदय,
एक चुटकी धुल को संसार कैसे मान लूं।
मैं तुम्हारी लाज को उपहार कैसे मान लूं।
मैं धरा छूती नज़र मनुहार कैसे मान लूं।
चाहता दो बात करना ,पर न अब तक मिल सका,
मैं तुम्हारे रूठने को प्यार कैसे मान लूं।
चाहता सोना मगर यह नीद हे आती नहीं।
मन न देखूं, पर नज़र थोड़ा भी शर्माती नहीं।
बस चले मेरा अगर, तो खोल कर रखदूं ह्रदय
पर ह्रदय की बात ओठों तक ज़रा आती नहीं।
मत कहो यह तो न संभव गीत लिखना छोड़ दूं।
मत कहो मैं प्यार की तस्वीर रचना छोड़ दूं ।
लेखनी मन की हुई औ मन नहीं मेरा रहा।
मत कहो यह है असंभव प्यार करना छोड़ दूं ।
विपिन चतुर्वेदी।
उपरोक्त रचनाएँ मेरे अप्रकाशित रुबाई संग्रह श्रृंगार का भाग हैं। रचनाएं मेरे विद्यार्थी काल (१९५०-१९६०) की हाँ। आज के पाठक , आप लोगों को शायद पुराने ज़माने की लगें । बहरहाल आप लोगों की तवज्जो ओर आशीर्वाद चाहूँगा। गुनीजन यदि इस योग्य समझें तो दाद ज़रूर दें ल
विपिन चतुर्वेदी, ऋषिकेश मकर संक्रांति,

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