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Wednesday, January 13, 2010

ज़मीं हिलती हुई मक़बूल अब महसूस होती है

 मकबूलजी 
ज़मीं हिलती हुई मक़बूल अब महसूस होती है। बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने। और अनिलजी आप ने पत्थर के सनम से खूब मिलवाया है। बधाई। अनिल कुलश्रेष्ठ और बलराम दुबे जी ने धांसू फोटो भेजे हैं। सबको धन्यवाद
पं. सुरेश नीरव

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