Search This Blog

Thursday, January 21, 2010

ख्वाबों के घर मेंख्वाहिशों तुम बहुत महफूज़ हो

कुछ ग़ज़ल बिल्कुल नई कही हैं। पेशे खिदमत है-
 ग़ज़ल-1
रास्ते जब बंद हों सब तब उसे तुम सोचना
रहमतों से जिसके  रस्ते सेंकड़ों बन जांएगे

ख्वाबों के घर मेंख्वाहिशों तुम बहुत महफूज़ हो
पांव जो रक्खा ज़मीं पर तो बदन जल जांएंगे


क्या बला का जादू है इन हाथों में फ़नकार के
बुत  तराशेगा  तो  पत्थर  देवता बन जांएगे


हर मुकम्मिल आदमी को अब हराया जाएगा
और  ये  आधे  अधूरे सब यहां चल जांएगे

बेशऊरों से मिलो जब  दूरियां रखना ज़रूर
हँस के दो बातें कहीं तो सर पे ये चढ़ जांएगे



कच्ची मिट्टी को तो अपना कोई चेहरा है नहीं
जैसे  ढालोगे  ये  बच्चे  वैसे  ही ढल जांएगे।

पं. सुरेश नीरव

ग़ज़ल  -2

डूबता हूं रोज़ ख़ुद में तुम तलाशोगे कहां 
दिल बेचारा ख़ुद कहां ही ढूंढ पाया है मुझे

आग है पानी के घर में आंसुओं की शक़्ल में
जिसकी मीठी आंच ने पल-पल जलाया है मुझे

कितने जंगल कत्ल होंगे  इक सड़क के वास्ते
एक  उखड़े   पेड़  ने  बेहद  रुलाया है मुझे

मैं अंधेरों से लड़ा था उम्र भर इक शान से 
और ये किस्मत की सूरज ने बुझाया है मुझे


उसने कुछ मिट्टी उठाई और हवा में फेंक दी
ज़िंदगी  का  फलसफा  ऐसे  बताया है मुझे

उसने तनहाई के सुर में याद का नग़मा बना
ज़िंदगी के हर क़दम पर गुनगुनाया है मुझे


प्यार के लम्हें जले सब गर्दिशों की आग में 
क्या बचा है पास मेरे क्यों बुलाया है मुझे।

ग़ज़ल-3

डूबता हूं रोज़ ख़ुद में इक भंवर-सा आजकल 
रूह में  रहने  लगा है एक डर-सा आजकल 

दर्द के सेहरा में भटके  आंख  में आकर टिके
आंसुओं को मिल गया है एक घर-सा आजकल  

बर्फ़ के घर जन्म लेकर प्यास से तड़फी है जो
जी रहा हूं रेत में ग़ुम उस लहर-सा आजकल  

फूल-पत्ती फल हवाएं साथ अब कुछ भी नहीं 
ठूंठ में जिंदा दफन हूं इक शजर-सा आजकल  

इस हुनर से जान  ली कि  दूर तक चर्चा नहीं
दोस्ती का रुख़ भी है मीठे जहर-सा  आजकल 

हो जहां साजिश की खेती और फ़रेबों के निशां 
आदमी अब हो गया है उस शहर-सा आजकल 

ख़ुद रिसाले पूछते हों रात-दिन जिसका पता
हो गया हूं कीमती मैं उस ख़बर-सा आजकल । 
पं. सुरेश नीरव 
 
 ग़ज़ल-4
 धूप की हथेली पर ख़ुशबुओं के डेरे हैं
तितलियों के पंखों पर जागते सबेरे हैं

नर्म-नर्म लम्हों की रेशमी-सी टहनी पर 
गीत  के परिंदों  के  ख़ुशनुमा बसेरे हैं 

फिर मचलती लहरों पर नाचती-सी किरणों ने
आज  बूंद  के  घुंधरू  दूर  तक  बिखेरे हैं

सच के झीने आंचल में झूठ यूं छिपा जैसे
रोशनी  के  झुरमुट  में  सांवले अंधेरे हैं

डूब के स्याही में जो लफ्ज़-लफ्ज़ बनते हैं
मेरी  ग़ज़लों  में  उन आंसुओं के फेरे हैं

उजले मन के चंदन का सर्प क्या बिगाड़ेंगे
आप  भी  तो  ऐ नीरव मनचले सपेरे हैं।

पं. सुरेश नीरव

No comments: