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Friday, January 22, 2010

खुमार बाराबंकवी


अकेले हैं वो और झुंझला रहे हैं

मेरी याद से जंग फ़रमा रहे हैं


इलाही मेरे दोस्त हों ख़ैरियत से

ये क्यूँ घर में पत्थर नहीं आ रहे हैं


बहुत ख़ुश हैं गुस्ताख़ियों पर हमारी

बज़ाहिर जो बरहम नज़र आ रहे हैं


ये कैसी हवा-ए-तरक्की चली है

दीये तो दीये दिल बुझे जा रहे हैं


बहिश्ते-तसव्वुर के जलवे हैं मैं हूँ

जुदाई सलामत मज़े आ रहे हैं


बहारों में भी मय से परहेज़ तौबा

'ख़ुमार' आप काफ़िर हुए जा रहे हैं


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हाले-ग़म उन को सुनाते जाइए

शर्त ये है मुस्कुराते जाइए


आप को जाते न देखा जाएगा

शम्मअ को पहले बुझाते जाइए


शुक्रिया लुत्फ़े-मुसलसल का मगर

गाहे-गाहे दिल दुखाते जाइए


दुश्मनों से प्यार होता जाएगा

दोस्तों को आज़माते जाइए

2 comments:

Randhir Singh Suman said...

बहारों में भी मय से परहेज़ तौबा

'ख़ुमार' आप काफ़िर हुए जा रहे हैं nice
http://loksangharsha.blogspot.com/

Rajeysha said...

खुमार बाराबंकवी की शेरों में कही कहानि‍यां सच्‍ची हैं।