सामवेद में आपो देवता
‘सामदेव’ में ‘आपो देवता’ से सम्बधित केवल तीन ‘साम’ (सामवेदीय मंत्र) उपलब्ध हैं। इन ‘सामों’ के मंत्रदृष्टा ऋषिः त्रिशिरात्वाष्ट्र अथवा सिन्धु द्वीप आम्बरीष हैं। इनका छन्दः गायत्री है। ये ‘साम’ उत्तरार्चिक के बीसवें अध्याय के सप्तम खण्ड में है। किन्तु ‘अथर्ववेद’ (1-सू-5) में भी उपलब्ध है।(1837) आपो ही ष्ठा मयो भुवस्ता न ऊर्जे दधातन।
महे रणाय चक्षसे।।4।।
(1838) यो वः शिवतमो रसस्तस्यय भाजयतेह नः।
उशतीरिव मातरः।।5।।
(1839) तस्मा अरं गमाम वो यस्यक्षयाय जिन्वथ।
आपो जनयथा च नः।।6।।
विशेषः- उक्त तीनों मन्त्रों का सामान्य अर्थ ‘अथर्ववेद’के ‘अपांभेषज’ सूक्त क्र.-5 में दिया हुआ है। ‘सामदेव’ के सन्दर्भ में इन मन्त्रों को मात्र इस कारण लिखा गया है ताकि पाठक यह न सोचें कि सामदेव में ‘आपोदेवता’ विषयक मंत्र हैं ही नहीं। वस्तुतः यहाँ ये मन्त्र ‘साम’ के रूप में हैं। किन्तु यहाँ उनकी उपयोगिता न होने के कारण उन्हें ‘साम’ रूप में नहीं लिखा जा रहा है। ‘साम’ का अर्थ होता है- ‘सा’ (अर्थात ऋचा) + ‘अम’ (अर्थात् स्वराश्रय, आलाप) = ‘साम’ अर्थात् स्वरबद्ध मंत्र)।
सामवेद में आपो देवता
‘सामदेव’ में ‘आपो देवता’ से सम्बधित केवल तीन ‘साम’ (सामवेदीय मंत्र) उपलब्ध हैं। इन ‘सामों’ के मंत्रदृष्टा ऋषिः त्रिशिरात्वाष्ट्र अथवा सिन्धु द्वीप आम्बरीष हैं। इनका छन्दः गायत्री है। ये ‘साम’ उत्तरार्चिक के बीसवें अध्याय के सप्तम खण्ड में है। किन्तु ‘अथर्ववेद’ (1-सू-5) में भी उपलब्ध है।(1837) आपो ही ष्ठा मयो भुवस्ता न ऊर्जे दधातन।
महे रणाय चक्षसे।।4।।
(1838) यो वः शिवतमो रसस्तस्यय भाजयतेह नः।
उशतीरिव मातरः।।5।।
(1839) तस्मा अरं गमाम वो यस्यक्षयाय जिन्वथ।
आपो जनयथा च नः।।6।।
विशेषः- उक्त तीनों मन्त्रों का सामान्य अर्थ ‘अथर्ववेद’के ‘अपांभेषज’ सूक्त क्र.-5 में दिया हुआ है। ‘सामदेव’ के सन्दर्भ में इन मन्त्रों को मात्र इस कारण लिखा गया है ताकि पाठक यह न सोचें कि सामदेव में ‘आपोदेवता’ विषयक मंत्र हैं ही नहीं। वस्तुतः यहाँ ये मन्त्र ‘साम’ के रूप में हैं। किन्तु यहाँ उनकी उपयोगिता न होने के कारण उन्हें ‘साम’ रूप में नहीं लिखा जा रहा है। ‘साम’ का अर्थ होता है- ‘सा’ (अर्थात ऋचा) + ‘अम’ (अर्थात् स्वराश्रय, आलाप) = ‘साम’ अर्थात् स्वरबद्ध मंत्र)।
यजुर्वेद में आपो देवता
यजुर्वेद संहिता के दूसरे अध्याय के मन्त्र 34 – ‘आपो देवता’ के ऋषि प्रजापति और छन्दः भुरिक् उष्णिक् है।मन्त्रः
(65) ऊर्जं वहन्तीरमृतं घृतं पयः कीलालं परिस्त्रुतम्।
स्वधा स्थ तर्पयत मे पितृन।।34।।
हे जल समूह! अन्न, घृत, दूध तथा फूलों-फलों में आप ‘रस रूप’ में विद्यमान हैं। अतः अमृत के समान सेवनीय तथा धारक शक्ति बढ़ाने वाले हैं। इसलिए हमारे पितृगणों को तृप्त करें।।34।।
यजुर्वेद संहिता के चौथे अध्याय के मन्त्र-12 के ऋषिः अंगरिस् तथा छन्दः – भुरिक् ब्राह्मी अनुष्टुप् है। (140) श्वात्राः पीता भवत यूयमापो अस्माकमन्तरुदरे सुशेवाः।
ता S अस्मभ्यमयक्ष्मा S अनमीवा S अनागसः स्वदन्तु देवीरमृता S ऋतावृधः।।12।।
हे जल! दुग्ध रूप में हमारे द्वारा सेवन किये गये आप, शीघ्र ही पच जायें। पिये जाने के बाद हमारे पेट में आप सुखकारी हों। ये जल राजरोग से रहित, सामान्य बाधाओं को दूर करने वाले, अपराधों को दूर करने वाले, यज्ञों में सहायक, अमृत स्वरूप, दिव्य गुण से युक्त, हमारे लिए स्वादिष्ट हों।
सौजन्यः इंडियावाटर पोर्टल
1 comment:
bahut sundar
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