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Thursday, January 28, 2010

अगर मौज है बीच धारे चला चल

अगर मौज है बीच धारे चला चल
वगरना किनारे किनारे चला चल।

इसी चाल से मेरे प्यारे चला चल
गुज़रती है जैसे गुज़ारे चला चल।

तुझे साथ देना है बहरूपियों का
नए से नया रूप धारे चला चल।

मुसलसल बुतों की तमन्ना किये जा
मुसलसल ख़ुदा को पुकारे चला चल।

तुझे तो अभी देर तक खेलना है
इसी में तो है जीत हारे चला चल।
हफ़ीज़ जालंधरी
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मक़बूल

1 comment:

समय चक्र said...

अगर मौज है बीच धारे चला चल
वगरना किनारे किनारे चला चल।

वैसे मौज शब्द पढ़कर मौज में आ जाता हूँ... बहुत बढ़िया रचना ..