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Friday, January 29, 2010

भरते हैं हुंकार जो आईने के सामने

कुछ तंज बड़े गहरे उतर जाते हैं
शब्द रह जाते हैं इंसान गुजर जाते हैं

हमने देखे हैं वो फ़रिश्ते प्यार के
जो वादा करके भी मुकर जाते हैं

भरते हैं हुंकार जो आईने के सामने
ज़माने की घुड़की में डर जाते हैं

न तोड़ो ये धागा प्यार का इतरा के
टूट कर मोती जमीन पर बिखर जाते हैं

समझते हैं हम भी हैं नासमझ नहीं हैं
तेरे फेंके हुए खंजर किधर जाते हैं

प्रस्तुति: अनिल (२९.०१.२०१० सायं ५.४५ बजे )

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