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Monday, January 18, 2010

वसीम बरेलवी की गजले





आज की अंजुमन में पढे जनाब वसीम बरेलवी की गज़लें



रात के टुकड़ों पे पलना छोड़ दे

शम्अ से कहना के जलना छोड़ दे


मुश्किलें तो हर सफ़र का हुस्न हैं,

कैसे कोई राह चलना छोड़ दे


तुझसे उम्मीदे- वफ़ा बेकार है,

कैसे इक मौसम बदलना छोड़ दे


मैं तो ये हिम्मत दिखा पाया नहीं,

तू ही मेरे साथ चलना छोड़ दे


कुछ तो कर आदाबे-महफ़िल का लिहाज़,

यार ! ये पहलू बदलना छोड़ दे.

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अपने हर लफ़्ज़ का ख़ुद आईना हो जाऊँगा

उसको छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो जाऊँगा


तुम गिराने में लगे थे तुम ने सोचा भी नहीं

मैं गिरा तो मसअला बनकर खड़ा हो जाऊँगा


मुझ को चलने दो अकेला है अभी मेरा सफ़र

रास्ता रोका गया तो क़ाफ़िला हो जाऊँगा


सारी दुनिया की नज़र में है मेरी अह्द—ए—वफ़ा

इक तेरे कहने से क्या मैं बेवफ़ा हो जाऊँगा?

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क्या दुःख है, समंदर को बता भी नहीं सकता

आँसू की तरह आँख तक आ भी नहीं सकता


तू छोड़ रहा है, तो ख़ता इसमें तेरी क्या

हर शख्स मेरा साथ, निभा भी नहीं सकता


प्यासे रहे जाते हैं जमाने के सवालात

किसके लिए जिन्दा हूँ, बता भी नहीं सकता


घर ढूंढ रहे हैं मेरा , रातों के पुजारी

मैं हूँ कि चरागों को बुझा भी नहीं सकता


वैसे तो एक आँसू ही बहा के मुझे ले जाए

ऐसे कोई तूफ़ान हिला भी नहीं सकता.
प्रस्तुत कर्ता राजमणि

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