ढूंढते हैं जो न खुद, वो मंजिलें पाते नहीं
रास्ते खुद तो किसी को राह दिखलाते नहीं।
प्यास ग़र अपनी बुझानी है तो चल पनघट के पास
ख़ुद कुऐं चल कर किसी के पास तो आते नहीं।
लेके हाथों में सुराही, डगमगाता यूँ न चल
पीनेवाले इस तरह तो जाम छलकाते नहीं।
काम कर, बस सोचने भर से न संवरेगा नसीब
बंजारों पर मेघ भी जलधार बरसाते नहीं।
तौल ले औकात अपनी, देख ले मौक़ा मुकाम
रात के पंछी सुबह को पंख फैलाते नहीं।
मौत कितना ही पुकारे, ज़िन्दगी रूकती नहीं
मुश्किलों से तो कभी जांबाज़ घबराते नहीं।
डूबते सूरज से इतना भी नहीं सीखा पराग
जाने वाले लौट कर आने में शर्माते नहीं।
ओ० पी० चतुर्वेदी ' पराग'
प्रसुती- मृगेन्द्र मक़बूल
3 comments:
लेके हाथों में सुराही, डगमगाता यूँ न चल
पीनेवाले इस तरह तो जाम छलकाते नहीं।
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-हर शेर उम्दा निकाला है!!
वाह, रचना में एक-एक बात निराली !
aap donon hazraat kaa shukriyaa.
maqbool
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