आखिर है क्या भदेस शब्द
आज मैंने जय लोकमंगल ब्लॉग पर चल रही भदेस शब्दों की बहस को लेकर तमाम विद्वानों के विचार पढ़े। एक समय था जब लोग घर में किसी को उपन्यास नहीं पढ़ने देते थे उपन्यास पढ़ने पर पिटाई होती थी। फिल्म नहीं देखने देते थे यदि मालूम पड़ जाए कि बच्चा सिनेमा देखने गया था तो उसकी पिटाई लगती थी। मिला यदि उल्टे पल्ले की साड़ी पहनले तो उसे बदचलन समझा जाताथा। बिना दुपट्टे के लड़की बाहर निकल जाए तो उसे आवारा समझा जा था। प्टाज,लहसुन,टमाटर,गाजर,मसूर की दाल और चाय को तामसी समझा जाता था। और-तो-और शालीन कन्या बाजार की बनी ब्रा भी नहीं पहन सकती थी। आदमी यदि खड़े होकर पेशाब करता था तो उसे असभ्यता में शुमार किया जाता था विदेश जाने पर धर्मभ्रष्ट हो जाने के फतवे जारी होते थे। एक समय में विधवा के विवाह को भी अधर्म माना जाता था और औरत को सती होने के लिए बाध्य किया जाता था। परिजन को पास से निकलने पर उसकी पिटाई की जाती थी। आज कोई इन बातों को अगर मानने बैठ जाए तो उसे भदेस कहा जाएगा। ऐसे ही शब्द होते हैं मगर जब बात भदेसपन की हो तो भदेस शब्दों से कैसे बचा जा सकता है मैं समझ नहीं पा रहा हूं। इनका ुपयोग होना प्रसंग को और सार्थक बनाता है ऐसा मैं सोचता हूं।
ओ। चांडाल
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