रोती हुई आँखों को हंसाया बहुत है
ये हुनर हमने खुद पे, आजमाया बहुत है
झोंपड़ी गरीब की कहती है सिसककर
पसीना मेरा महलों के, काम आया बहुत है
मेरे जख्मों ने मुझे और ज़हीन कर दिया
ठोंकरों ने जिंदगी की, समझाया बहुत है
अपनों से बिछड़ कर हम खुद से जो मिले
क्यों लगे वजूद अपना, पराया बहुत है
कैसे न कोई रोता उसकी तुर्बत पर पहुंचकर
घायल ने ज़माने को, हंसाया बहुत है ।
प्रस्तुति : अनिल (30।01.2010 शाम 5.10 बजे )
2 comments:
झोंपड़ी गरीब की कहती है सिसककर
पसीना मेरा महलों के, काम आया बहुत है
वाह...क्या बात है बहुत खूब...आभार आपका नीरव जी इस रचना को पढवाने के लिए.
नीरज
मेरे जख्मों ने मुझे और ज़हीन कर दिया
ठोंकरों ने जिंदगी की, समझाया बहुत है
-बहुत बेहतरीन!
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