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Wednesday, January 6, 2010

रात गुजरी है गुसलखाने में

वाह वाह नीरव जी, बड़े दिनों बाद एक मज़ेदार हज़ल पढवाने का शुक्रिया।
रात गुज़री है गुसलखाने में
क्या खिलाया था तू ने खाने में।
लाजवाब मख्ता है।
आप को मेरी प्रस्तुत ग़ज़ल पसंद आई। शुक्रिया। आज ताबिश देहलवी कि एक ग़ज़ल पेश है।
बेक़रारी सी बेक़रारी है
दिल भी भारी है, रात भारी है।

ज़िन्दगी की बिसात पर अक्सर
जीती बाज़ी भी हमने हारी है।

तोड़ो दिल मेरा, शौक से तोड़ो
चीज़ मेरी नहीं, तुम्हारी है।

बारे- हस्ती उठा सका न कोई
ये गमे- दिल जहां से भारी है।

आँख से छुप के दिल में बैठे हो
हाय; कैसी ये पर्दादारी है।
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मक़बूल

1 comment:

करण समस्तीपुरी said...

हाय ! कैसी ये पर्दादारी है..... !!
खलूस.... खूबसूरत !!