ये आरज़ू थी तुझे गुल के रूबरू करते
हम और बुलबुले- बेताब गुफ्तगू करते।
पयामबर न मयस्सर हुआ तो खूब हुआ
ज़बाने-ग़ैर से क्या शर की आरज़ू करते।
मेरी तरह से माहो- महर भी हैं आवारा
किसी हबीब को ये भी हैं जुस्तजू करते।
जो देखते तेरी ज़ंजीरे- ज़ुल्फ़ का आलम
असीर होने को आज़ाद, आरज़ू करते।
न पूछ आलमे- बरगस्ता तालिये- आतिश
बरसती आग में जो बारां की आरज़ू करते।
हैदर अली आतिश
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मकबूल
3 comments:
बेहद उम्दा व खूबसूरत अभिव्यक्ति ।
हैदर अली आतिश साहब की गज़ल पढ़ कर अच्छा लगा!
aap dono hazraat kaa shukriyaa.
maqbool
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