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Tuesday, January 5, 2010

विनोद तिवारी kee Ghazle



रात रोते हुए कटी यारो
अब भी दुखती है कनपटी यारो
हमने यूँ ज़िंदगी को ओढ़ा है
जैसे चादर फटी-फटी यारो
शक की बुनियाद पर टिका है शहर
दोस्त करते हैं गलकटी यारो
भूख में कल्पना भी होती है
फ़ाख़्ता एक परकटी यारो
किससे मजबूरियाँ बयान करें
जीभ तालू से जा सटी यारो
चुप्पियों की वजह बताएँगे
वक़्त से गर कभी पटी यारो
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बाहर चुप है अन्दर चुप
धरती और समंदर चुप
शेख बिरहमन चीख़ रहे हैं
मस्जिद चुप है मन्दर चुप
शायद है बीमार मदारी
बैठे ताकें बन्दर चुप
ऐरे-ग़ैरे पाठ पड़ाते
ज्ञानी और धुरन्धर चुप
Rajmani

1 comment:

Mithilesh dubey said...

वाह क्या बात है , लाजवाब ।