प० सुरेश नीरव, ब्लॉग पर मेरा फोटो डालने का शुक्रिया। आप की हाश्य ग़ज़ल पढ़ कर मज़ा आ गया। आज राजमणि जी द्वारा पता चला कि मख्मूर सईदी साहब नहीं रहे। मुझे उनके कलाम बेहद पसंद थे। श्रद्धांजलि के तौर पर आज उन्हीं की एक और ग़ज़ल पेश है।
बिखरते टूटते लमहों को अपना हमसफ़र जाना
था इस राह में आखिर हमें खुद भी बिखर जाना।
हवा के दोश पर बादल के टुकड़ों की तरह हम हैं
किसी झोंके से पूछेंगे कि है हम को किधर जाना।
मेरे जलते हुए घर की निशानी बस यही होगी
जहां इस शहर में रौशनी देखो ठहर जाना,
पसे-ज़ुल्मत कोई सूरज हमारा मुन्तज़िर होगा
इसी इक वहम को हम ने चिरागे-रहगुज़र जाना।
दयारे-ख़ामोशी से कोई रह रह कर बुलाता है
हमें मख्मूरएक दिन है इसी आवाज़ पर जाना।
मख्मूर सईदी
प्रस्तुति- मृगेन्द्र मक़बूल
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