उत्पलारण्य
पंडित सुरेश नीरव
हमारे धार्मिक ग्रंथों में जंगल,वन और अरण्यों का उल्लेख खूब विस्तार से हुआ है। इन अरण्यों में स्थित ऋषि-मुनियों के आश्रम साधना.ज्ञान और विज्ञान के केन्द्र हुआ करते थे। इन अरण्यों में ही पल-बढ़कर और पढ़कर राजपुत्र धर्म और नीति की शिक्षा लेते थे। और ऋषिगण यहीं रहकर ही जीवन,संसार और ब्रह्म के गूढ़ रहस्यों को सुलझाते थे। महाभारत,रामायण,रामचरितमानस में नैमिषारण्य,दण्डकारण्य आदि इन अरण्यों का उल्लेख खूब विस्तार से हुआ है। मत्स्य पुराण में एक ऐसे ही अरण्य की चर्चा बड़े विस्तार से की गई है। यह अरण्य है- उत्पलारण्य।
ब्रह्मा जो कि सृष्टिकर्ता हैं,ऐसी मान्यता है कि उन्होंने इसी अरण्य को अपना स्थान बनाया था। चूंकि यह ब्रह्मा का स्थान है इसलिए इसे ब्रह्मावर्त भी कहा गया। ब्रह्मावर्त उत्पलारण्य की राजधानी थी। मनु यहां के राजा थे। और सतरूपा उनकी पत्नी थी। कहीं-कहीं मनु की पत्नी का नाम अनंती भी आया है। मत्स्य पुराण में मछली के रूप में विष्णु पृथ्वी की कथा मनु को सुनाते हैं। जो कि मत्स्य पुराण का केन्द्रीय नायक है। मनु का एक नाम सत्यव्रत भी था। कथा है कि एक दिन मनु गंगा में हाथ धोने को उतरे। तभी एक मछली उनके हाथों में आ गई। और इस मछली ने मनु से अपने जीवन-रक्षा की गुहार की। मनु दयावश उस मछली को अपने घर ले आए। और अपने कमंडल के जल में रख दिया। मगर मनु को यह देखकर बड़ा ही आश्चर्य हुआ कि मछली का आकार तेजी से बढ़ता जा रहा है। उन्होंने उस चमत्कारी मछली को तब उठाकर एक और बड़े पात्र में रख दिया। मगर ये क्या। मछली का आकार उस पात्र में भी तेजी से बढ़ने लगा। हतप्रभ मनु ने तब उस अनोखी मछली को वापस नदी में डाल दिया। मगर फिर वही हुआ। मछली का आकार नदी में भी इतना बढ़ गया कि नदी भी मछली के लिए छोटी पड़ गई। चकित-विस्मित मनु ने तब उस मछली को सागर में डाल दिया। कथा है कि वह विशाल मछली देखते-ही-देखते उस समुद्र को भी पी गई। और उसका आकार बढ़ना फिर भी कम नहीं हुआ। तब मनु ने उस मछली से कहा कि तुम्हारी मायावी शक्तियां यह बता रही हैं कि तुम साधारण मछली नहीं हो। तुम क्या बला हो और मुझे अपनी मायावी शक्तियों से क्यों भ्रमित और सम्मोहित कर रही हो। तब उस मछली ने रहस्योदघाटन किया कि मैं तुम्हें यह बताने आई हूं कि आज से ठीक सात दिन बाद इस पृथ्वी पर महाप्रलय आनेवाली है। जीव,जंतु,वनस्पति,नदी पहाड़ सब जल में डूब जाएंगे। चारों ओर सिर्फ पानी-ही-पानी होगा। महा जल प्लावन होगा। धरती से सृष्टि का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। मछली ने मनु से कहा कि तुम अपने जीवित रहने की जरूरी चीजें अपने पास एक नाव में अवश्य रख लेना। यह चीजें हीं तुम्हारे लिए सृष्टि-बीज सिद्ध होंगी। और फिर वहीं से शुरू होगी एक नई दुनिया। इस नए संसार के आदि पुरुष होगे तुम। और आदि स्त्री होगी तुम्हारी पत्नी। मछली की इन रहस्यमयी बातों को सुनकर तब मनु ने ध्यान लगाया। ध्यान लगाते ही मनु विष्णु भगवान को पहचान गए जो कि मछलीरूप में उन्हें सचेत-सतर्क करने आए थे।
ठीक सात दिन बाद वही हुआ जिसकी कि भविष्यवाणी उस चमत्कारी मछली ने की थी। महाप्रलय से सारा संसार जल मग्न हो गया। दूर-दूर तक जीवन का कहीं कोई निशान बाकी नहीं रहा। तभी दो लंबे-लंबे सींगोंवाली एक मछली तैरती हुई मनु के पास आई और पास आकर रुक गई। मनु ने उस मछली के सींगों से अपनी नाव बांध ली। मनु और उनकी पत्नी सतरूपा अत्यंत ही अल्प और बहुत ही जरूरी चीजों के साथ आकर इस नाव में सवार हुए। काफी लंबी जल यात्रा के बाद इस मछली ने मलयपर्वत पर आकर विश्राम लिया। मनु और सतरूपा नाव से यहां सुरक्षित उतर गए। वह चमत्कारी मछली अब इनकी दृष्टि से ओझल हो गई। उसका दायित्व प्रलय के बाद सृष्टि-बीज के रूप में मनु और सतरूपा को सिर्फ बचाना ही था। और फिर यहीं से शुरू हुआ एक और नई दुनिया का सफर..। मनु और सतरूपा ने उत्पलारण्य को अपनी आश्रय स्थली बनाया क्योंकि सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने यहीं से सृष्टि के नवनिर्माण का महत्वपूर्ण संकेत स्वयं यहां अपना आवास बना के दिया था। ब्रह्मा के आवास के कारण ही यह क्षेत्र ब्रह्मावर्त कहलाया। ब्रह्मा ने स्वयं यहां शिवलिंग निकालकर ब्रह्म-महादेव की स्थापना की थी। मनु ने भी इसी क्षेत्र को अपना आवास बनाया। मनु(सत्यव्रत) के आगे चलकर दो पुत्र हुए-प्रियव्रत और उत्तानपाद। धीरे-धीरे पृथ्वी बसने लगी। मनु का राज्य बढ़ने-बसने लगा। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि मनु इस पृथ्वी के प्रथम राजा हुए। और इनके बाद मनु के पुत्र उत्तानपाद यहां के राजा बने। इनके नाम से ही इस अरण्य को उत्पलारण्य के नाम से जाना जाने लगा। इन उत्तानपाद के दो पत्नियां थीं-जिनसे एक-एक पुत्र हुआ। उत्तम और ध्रुव। ध्रुव की मां का नाम रक्षिता था। ध्रुव बहुत ही संवेदनशील और संस्कारी बालक था। मगर दुर्भाग्य से उत्तानपाद का प्रेम ध्रुव की अपेक्षा उत्तम से कुछ ज्यादा था। एक बार उत्तम अपने पिता की गोद में बैठा हुआ था कि तभी बालक ध्रुव ने भी पिता की गोद में बैठने की जिद कर डाली। मगर सौतेली मां ने ध्रुव को पिता की गोद में नहीं बैठने दिया। रोता हुआ ध्रुव अपनी मां के पास पहुंचा। मां ने बेटे को समझाते हुए कहा कि बेटे पिताजी की गोद से भी बड़ी गोद भगवान की होती है। तू भगवान से प्रार्थना कर। वे खुश हो जांएगे तो अपनी गोद में तुझे बैठा लेंगे। बालक ध्रुव ने यह बात गांठ बांध ली और महल में ही भगवान की पूजा करने लगा। लेकिन भगवान के उसे दर्शन नहीं हुए। उसने अपनी मां से शिकायत की कि भगवान मुझे अपनी गोद में बैठाने मेरे पास क्यों नहीं आ रहे,तो मां ने ध्रुव को समझाते हुए कहा कि बेटा तुम भगवान विष्णु की पूजा करो,वे बड़े ही दयालु हैं,वे तेरी इच्छा जरूर पूरी करेंगे। तब जिज्ञासावश ध्रुव ने पूछा कि विष्णु भगवान मिलेंगे कहां। इस पर जैसे कि हर मां अपने बेटे का मन बहलाने के लिए कुछ तो भी कहानी गढ़ देती हैं ध्रुव की मां ने भी ध्रुव से कहा, बेटा भगवान जंगल में मिलेंगे। बस यही बात ध्रुव के मन में लग गई। और वह चल दिया जंगल की ओर घोर तपस्या करने। और वह भी इस हठ के साथ कि जब तक मुझे भगवान आकर साक्षात दर्शन नहीं देंगे और मुझे गोद में नहीं बैठाएंगे तब तक मैं अपनी तपस्या समाप्त नहीं करूंगा। जिस जंगल में भक्त ध्रुव ने यह घोर तपस्या की थी वह उत्पलारण्य ही था। उत्तानपाद के राज्य का ही एक अरण्य। लक्ष्मी ने देखा कि एक बालक अकेला इस नितांत घने जंगल में रात के अंधेरे में अकेला जा रहा है। और कुछ लुटेरे उसके पीछे लगे हुए हैं तो उन्होंने स्वयं जाकर ध्रुव की इन डाकुओं से रक्षा की और सारा व्रतांत जाकर भगवान विष्णु को बताया। विष्णु ने बालक ध्रुव को समझाने के लिए महर्षि नारद को भेजा। मगर ध्रुव टस से मस नहीं हुआ और उसने नारद से कहा कि जब तक भगवान विष्णु मुझे आकर अपनी गोद में नहीं बैठाते तब तक मैं अन्न-जल ग्रहण नहीं करूंगा। ध्रुव की इस कठिन तपस्या का समाचार भगवान शिव और पार्वती तक भी पहुंचा। कुछ दिनों बाद स्वयं पार्वती ध्रुव को देखने आईं। उन्होंने देखा कि ध्रुव तो अपनी तपस्या में लीन है मगर एक चीता ध्रुव को अपना शिकार बनाने की घात में ध्रुव की तरफ तेजी से बढ़ रहा है। शेर पर सवार पार्वती को देखकर चीता भयभीत होकर वहां से भाग गया। इस प्रकार उन्होंने ध्रुव की जान बचाई। पार्वती ने फिर यह समाचार जाकर शिव को दिया। और बताया कि वह इतनी घोर तपस्या कर रहा है कि एक चीता जब उसे खाने आगे बढ़ रहा था तो इसका तनिक भी भान ध्रुव को नहीं था। शिवजी ने भी विष्णु से कहा कि वह ध्रुव को जाकर दर्शन दें और उसकी मनोकामना पूरी करें तो इस पर विष्णु ने कहा कि ब्रह्मा ने जो कुछ ध्रुव के भाग्य में लिखा है वही होगा। इधर ध्रुव की घोर तपस्या से इंद्र का सिंहासन डोलने लगा था। उसने नारदजी से प्रार्थना की कि वह ध्रुव की मां रक्षिता को लेकर ध्रुव के पास जाएं और वह ध्रुव को समझाएं कि अपनी तपस्या वह समाप्त कर दे। नारदजी ध्रुव की मां को लेकर उसके पास गए मगर ध्रुव पर अपनी मां की विनती का भी कोई असर नहीं हुआ। इधर उत्तानपाद का भी अब राज-काज में मन नहीं लग रहा था। ध्रुव के समाचारों से वे अत्यंत विचलित हो रहे थे। नारद और इंद्र भी अपने प्रयासों में विफल हो चुके थे। इधऱ ध्रुव ने अब सांस लेना भी बंद कर दिया था। ध्रुव के सांस लेना बंद करते ही सारी पृथ्वी की गति रुक गई। सब कुछ जहां था सब वहीं रुक गया। भगवान विष्णु को भी अब भक्त की भक्ति के आगे झुकना पड़ा। इंद्र ने भी सामवर्त,भीमानंद, द्रौण,चंदा,वाल्हक,विद्युत पताका और कोण सातों प्रकार के बादलों के जल से ध्रुव का जलाभिषेक किया। भगवान विष्णु ने बालक ध्रुव को अपनी गोद में बैठाकर उसकी मनोकामना पूरी की। और कर्म तथा भक्ति का ज्ञान देकर उसे मोक्ष प्रदान किया। माना जाता है कि आसमान में सबसे चमकीला तारा बनकर ध्रुव आज भी अपनी भक्ति के आलोक से चमक रहा है।
जिस स्थान पर ध्रुव ने यह कठोर तपस्या की थी ब्रह्मावर्त में वह जगह आज भी ध्रुव का टीला के नाम से मौजूद है। भक्त की भक्ति के वशीभूत हो स्वयं हरि यानी भगवान विष्णु यहां आए थे इसलिए हरिधाम यानी विष्णु का स्थान भी यहां विद्यमान है। रामायण में भी यह स्थान अछूता नहीं रहा है। स्वयं रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि का आश्रम इसी उत्पलारण्य में था और आज भी है। यहीं बैठकर महर्षि वाल्मीकि ने रामायण की रचना की थी अग्नि परीक्षा के बाद सीताजी इसी आश्रम में आकर रहने लगी थीं। आज भी सीता की रसोई और सीताकुंड इस बात की गवाही पूरी प्रामाणिकता के साथ दे रहे हैं। अश्वमेघयज्ञ के आरंभ के लिए ब्रह्माजी ने अपना घोड़ा यहीं से छोड़ा था। ब्रह्मावर्त के मुख्य घाट पर आज भी ब्रह्मा के घोड़े की नाल का निशान बना हुआ है। एक समय में ब्रह्मावर्त में 52 घाट हुआ करते थे और यह 52 घाटों की नगरी कहलाती थी मगर अब यहां 29 ही घाट शेष बचे हैं। अश्वमेघयज्ञ के संदर्भ में एक तथ्य और जोड़ना उचित होगा कि जब सीताजी यहां वाल्मीकि आश्रम में रह रहीं थीं तो इसी आश्रम में उन्होंने लव-कुश को जन्म दिया था। रामचरित मानस में तुलसीदासजी ने लव-कुश की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि-
दोऊ बिजई बिनई गुन मंदिर हरि प्रतिबिंब मनहुं अति सुंदर
दुई-हुई सुत सब भ्रातन्ह केरे भए रूप गुन सील घनेरे।
यानी वे दोनों लव-कुश विजयी विख्यात योद्धा नम्र और गुणों के धाम हैं। और अत्यंत सुंदर हैं। मानो श्रीहरि के ही प्रतिबिंब हों। उल्लेखनीय है कि दो-दो पुत्र राम के सभी भाइय़ों के हुए जोकि बड़े ही सुंदर,गुणवान और सुशील थे। उस समय उत्पलारण्य की शोभा भी बड़ी न्यारी थी। आश्रमों में मोर,हंस,सारस और कबूतर वातावरण को गुंजार किया करते थे। आश्रम में बालकगण तोता और मैना को राम और रघुपति के शब्द सिखाते थे। महल के उज्ज्वल कलश आकाश को चूमते थे और उनके झरोखे मणियों से सुशोभित रहते थे। मणियों के बने खंभे थे। मूंगों की बनी देहलियां थीं। मरकत मणियों से जड़ी सोने की दीवारें थीं। आश्रमों के उद्यान में भिन्न-भिन्न प्रकार की पुष्पवाटिकाएं थीं। सदा तीनों प्रकार की सुंदर वायु बहती रहती थी। ललित लताएं सदा वसंत की तरह यहां फलती-फूलती रहती थीं। भ्रमर फूलों पर गुंजायमान रहते थे। वे मनोहारी स्वर में गुंजार करते थे। जब श्रीराम ने अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा अयोध्या से छोड़ा और जब वह उत्पलारण्य की सीमाओं में प्रविष्ट हुआ तो श्री राम के ही प्रतिबिंब विजयी योद्धा लव-कुश ने उनका घोड़ा रोक लिया। अश्वमेघयज्ञ के घोड़े को रोकने का अर्थ होता है राजा से युद्ध। अंततः हनुमान यह जानने आए कि घोड़े को रोकने की हिम्मत किसने की। जब उन्होंने दो बालकों को घोड़ा रोके हुए देखा तो उन्होंने इन वीर बालकों को समझाना चाहा मगर वे नहीं माने और उन्होंने हनुमानजी को ही पकड़कर पेड़ से बांध दिया। अयोध्या नरेश के घोड़े को दो बलकों ने उत्पलारण्य में रोक लिया है,यह समाचार जंगल की आग की तरह चारों ओर फैल गया। और अयोध्या तक जा पहुंचा। रणभेरी बज गई। राम और लक्ष्मण युद्ध के लिए चल पड़े। जब यह समाचार वाल्मीकि आश्रम में पहुंचा तो वाल्मीकिजी और सीता व्यथित हो उठे। दोनों ने ही युद्ध टालने के लिए लव-कुश को समझाया। अंततः युद्ध टल गया। जिस स्थान पर यह सुलह वार्ता हुई वह स्थान रणमेल कहलाया। और आज भी ब्रह्मावर्त में मौजूद है। लव-कुश का मंदिर भी ब्रह्मावर्त के माध्यम से इन दोनों बालयोद्धाओं की विजय गाथा सदियों से हमें सुना रहा है। रणमेल के बाद राम-जानकी का संभवतः यहां पुनर्मिलन भी हुआ इसलिए यहां राम-जानकी मंदिर भी बनाया गया। जो आज भी बना हुआ है। लक्ष्मण के आगमन को यादगार बनाने के लिए यहां लक्ष्मण घाट भी है। इस पवित्र भूमि को जिसे स्वयं ब्रह्मा ने बनाया और यहीं से सृष्टि का आरंभ किया इसलिए जीवनरूपी भवसागर से सत्कर्म के जरिए सीधे स्वर्ग जाने के लिए 48 दीपसोपानों से बनी स्वर्ग-नसैनी भी यहां बनी हुई है। जोकि अत्यंत ही प्राचीन है। उत्पलारण्य का उल्लेख सिर्फ रामायण और महाभारत या मत्स्यपुराण में ही नही है बल्कि देश की आजादी के संग्राम में भी यह क्षेत्र स्वर्णाक्षरों में अंकित है। बाजीराव पेशवा को अंग्रेजों ने पूना से निष्कासित कर इसी ब्रह्मावर्त में रहने को जगह दी थी। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की मशाल भी इसी क्षेत्र से प्रज्जवलित हुई थी।
नानाजी पेशवा, तात्याटोपे,महारानी लक्षमीबाई-जैसे वीर योद्धाओं ने अस्त्र-शस्त्र संचालन और घुड़सवारी का प्रशिक्षण इसी अरण्य में लिया था। कानपुर से 27 कि.मी. दूर कन्नोज मार्ग पर बना यह ब्रह्मावर्त आज बिठूर के नाम से धर्म और देशभक्ति की गौरव गाथा हमें सुना रहा है। पृथ्वी के सृष्टिकर्ता ब्रह्मा द्वारा स्थापित और भक्त ध्रुव तथा वाल्मीकि की इस तपस्या स्थली को हम भला कैसे भूल सकते हैं। हर तरह से मन को उत्पुल करनेवाला यह उत्पलारण्य खुशियों से भरा एक अरण्य हमारी बहुमूल्य थाती है।
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