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Saturday, September 11, 2010

सान्निध्य-एक भगवदप्रसाद




मैं आपको नमन करता हूँ। बधाई देता हूँ कि अपने मुझे इतना स्नेह दिया। यह आपका ही सान्निध्य है जो मुझे मिल रहा है। यह मेरा प्रारब्ध हैजो ऐसा संयोग भगवदस्नेह के रूप में मिला। मुझे आभास ही नहीं बल्कि मेरी पूर्ण आस्था थी जिस सान्निध्य के भगवदस्नेह की ज्योति जलेगी और उस ज्योति की रश्मि ज्योतिर्यमय होकर मेरे शब्दों की मणिका बनेगी। जो कुछ आया लिख दिया। लेकिन लिखने से पहले मैंने गुरु की मंगलरूपी चरणरज को माथे से लगाया और उसकी वंदना की। जय गुरु चरण मंगलरज , दाता मम गुरु भार। यह लेखन मैंने अपनी जन्मभूमि से प्रारंभ किया। इलाहबाद जाकर त्रिवेणी के संगम पर लिखा। और भरत चरित्र को त्रिवेणी के पवित्र जल से अभिषेक किया तथा गुरु और प्रभु को नमन किया। उसके बाद उज्जैन में जाकर १५ दिन तक इस महाकाव्य की रचना की। महाकाल के प्रांगन मेंभी इसकी रचना की। महाकाल का आशीर्वाद लिया और इस महाकाव्य का अभिषेक किया। वहीँ सान्दीपन के दर्शन किये तथा उनका आशीर्वादलिया। क्षिप्रा के शुचि जल से पाण्डुलिपि पर छींटें मारकर अभिषेक किया। हरिद्वार जाकर भी इस महाकाव्य के शब्दों की माला बनायी। गंगाजी के पवित्र जल से इस महाकाव्य पर छींटें मारीं और उस पर गंगाजल से एक सांतिया बनाया तथा उसका अभिषेक किया। इस तरह यह महाकाव्य चार साल तीन महीने में पूर्ण हुआ। और हाँ इसकी रचना मैंने गुरुपूर्णिमा के दिन से प्रारंभ की थी। यह मैंने कुछ नहीं सिर्फ श्रद्धेय गुरु और परमपिता परमेश्वर के प्रति अपनी आस्था, श्रद्धा और भक्ति को रेखांकित किया है क्योंकि बिना गुरु के संज्ञान नहीं मिलता है। गुरु ही संज्ञान देकर भगवददर्शन करता है। इस महाकाव्य पर कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में दो शोध कराये जा चुके हैं। प्रकाशन के बाद एक साल में तो इस भरत चरित्र महाकाव्य पर एम.फिल करा दी। आज मैंने जो श्रद्धेय गुरु के सान्निध्य से मुझे जो भगवदप्रसाद मिला है उसका जो चरणामृत मैंने पिया है। आज मुझे साक्षात मिल रहा है। पहले भी मेरी आस्था की शिराओं में बह रहा था जिसकी अनुकम्पा से यह महती कार्य संपन्न कर सका हूँ। जब यह महाकाव्य प्रकाशित होकर आया था तब सत्यनारायण भगवान की कथा कराकर भरत चरित्र महाकाव्य का पूजन कराया गया ,पंडितजी ने मन्त्रों द्वारा सांतिया आदि बनाकर इसका अभिषेक किया और पुस्तकों का प्रसादरूप में वितरण किया। इस भरत चरित्र का लोग अपने घरों में नियमितरूप से मनन व पठन कर रहे हैं। अब यह महाकाव्य शीघ्र ही टीका सहित प्रकाशित हो रहा है। गुरुदेव नीरवजी की मुझ पर महती अनुकम्पा और वरदहस्त है। आदरणीय डा० मधु चतुर्वेदीजी आपका भी आशीर्वाद तथा स्नेह मैं अनवरतरूप से अंगीकार कर रहा हूँ। इन्हीं शब्दों के साथ आप दोनों को मेरे बार-बार नमन एवं प्रणाम। जय लोकमंगल। आपके सारस्वत स्नेह का शुभेच्छु- भगवान सिंह हंस।


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