ग़ज़ल-
किरणों के नर्म लिबासों में उछलती है सहर
सतह पै झील के हौले से टहलती है सहर
सजी हो थाल में पूजा की भावना की तरह
मन की कुटिया में किसी दीप-सी जलती है सहर
उलझ के पांव बहुत डगमगाए कोगरे में
पकड़ के हाथ हवाओं का संभलती है सहर
संवर के रात की सीपी में मोतियों की तरह
सफर को नर्म घरौंदों से निकलती है सहर
सभी में होता है मासूम खुशबू का गुमां
कि जब भी सहमी-सी लड़की-सी मचलती है सहर
नज़ाकतों को नीरव समझ भी सकते हैं
दबे जो पांव खयालों में गुजरती है सहर
पंडित सुरेश नीरव
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।नीरवनीरवनीरवनीरवनीरव
पंडित सुरेश नीरव ननीरवनीरवनीरवनीरवनीरवनीरवनीरवनीरवनीरवनीरव
नीरव
नीरव

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