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Monday, October 11, 2010

भरत चरित्र महाकाव्य

कुल पेज -७३६
मुनि जावालि का नास्तिक मत --

माँ पितु गृह धन मात्र निवासा। राम! काहि इन पर उल्लासा। ।
जस पथिक थकित स्वेदित भाला। निशि हेतु पाये धर्मशाला । ।
महाकवि हंसजी कहते हैं कि जब भरत के मनाने पर राम नहीं माने तो मुनि जावालि को गुस्सा आ गया और कहा -राम! माँ, पिता, गृह,धन आदि मात्र निवास तुली हैं। राम ! इन पर क्यों प्रसन्न होते हो। जैसे थके राहगीर का माथा पसीना से तरबदर हो जाता है वैसे ही आप। और वह रात्रि विश्राम हेतु धर्मशाला तलाशता है।
त्याग चला कर रैन बसेरा। नहिं तासु किया मोह घनेरा। ।
तुम सज्जन कुल भूषण रामा। नहीं हो आसक्त अभिरामा। ।
और वह रैन बसेरा करके त्यागकर चला जाता है। उससे उसने घना मोह नहीं किया। राम! तुम सज्जन और कुल भूषण हैं। हे अभिराम! इतने मोह्में आसक्त नहीं हों ।
अतः सुविग्य यह तात राज्या। मत छोड़ ,यह तिहारे भाग्या। ।
राज्य छोड़ भटके वन मारा । दुःखमय कुत्सित मार्ग सारा । ।
अतः सुविग्य! यह तात का राज्य है। इसे मत छोडो, यह आपके भाग्य में है । राज्य छोड़कर वन में मारे-मारे भटकते फिरते हो। यह सारा मार्ग बड़ा दुःखमय और संतप्त है।
ऊबड़ खाबड़ धरनि वन , कंटक तुम्हें लखायं ।
हिंसक वन्य जीव यहाँ, देख मनुज बघियायं । ।
राम! वन में ऊबड़ खाबड़ जमीन है । चारों ओर तुम्हें काँटे ही दिखाई देते हैं। यहाँ वन में हिंसक वन्य जीव हैं। वे आदमियों को देखकर बघियाते हैं ।
अतः न चलो उस मार्ग आर्या। संग लघु भ्रात और स्वभार्या। ।
घास फूँस पर वन में सोना। असह्य यातना निरख रोना । ।
हे आर्य! उस मार्ग पर मत चलो । आपके साथ छोटा भाई और आपकी पत्नी हैं । वन में घास फूँस पर सोते हैं। असह्य यातना देखकर रोना आता है।
रचयिता - भगवन सिंह हंस
प्रस्तुतकर्ता - योगेश विकास

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