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Wednesday, October 27, 2010

पांव बूढ़ी पृथ्वी के अब तो डगमगाने हैं.


0 पर्यावरण पर पढ़िए पंडित सुरेश नीरव की एक खास कविता।
आज की तरक्की के रंग ये सुहाने हैं
डूबते  जहाजों  पर तैरते खजाने हैं

गलते हुए ग्लेशियर हैं सूखते मुहाने हैं
हांफती-सी नदियों के लापता ठिकाने हैं

टूटती ओजोन पर्तें रोज़ आसमानों में
आतिशों की बारिश है प्यास के तराने हैं

कटते हुए जंगल के गुमशुदा परिंदों को
आंसुओं की सूरत में दर्द गुनगुनाने हैं 

धुंआ-धुंआ  वादी  में हंसते कारखाने हैं
बहशी ग्लोवलवार्मिंग के सूनामी कारनामे हैं

एटमी  प्रदूषण  के  कातिलाना  तेवर  हैं
पांव बूढ़ी पृथ्वी के अब तो डगमगाने हैं..।
पंडित सुरेश नीरव

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