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Wednesday, October 27, 2010

समस्त बंधुओं को पालागन,नमस्कार हरी ॐ। सतश्री अकाल,कॉपी to आल।

आज बहुत दिनों के बाद आप सबसे मुखातिब हूँ। पता नहीं किसकी नज़र लगी कि सदाबहार आठवें दशक में तबीअत अलील रहने लगी और एक दिन वक़्त आगया तो दिल्ली की तरफ कूच करना पड़ा।

प्रभु की ऐसी ही इच्छा थी।

कुछ शुभचिंतकों की भी नज़र इतनी तीखी लगी कि फिर कान पूंछ farfadaa के उठ खड़ा हुआ और यह मान कर कि ऊपर के बुलावे से ज़्यादा ज़ोरदार बुलावा गंगाजी के मार्फ़त आप लोगों का है ,कम्पूटर जी पर आबैठा.

तुम बुलाना चाहते थे, आगया मैं।

गीत बन तेरे अधर पर छागया मैं।

जारहा था , पर क़दम उठते नहीं थे। देह मुड़ती ,पर नयन मुड़ते नहीं थे।

ज़ब्र अपने पर किये मैं चल दिया था, में चला था पर ह्रदय रुक सा गया था।

डाल से तोडा गया हो जो वृथा ही,

एक कोमल फूल सा मुरझा गया में।

अधर थे चुप, कह रह था मन,न जाओ

थी घटायें मौन, कहती थी , न जाओ।

रोकती थी पंथ बूँदें भी टपक कर, टोकती थी बिजलियाँ मानो कड़क कर ।

पर हवाएं थीं, उड़ाने पर तुली थी।

था ह्रदय भारी, मगर उड़ता गया मैं।

लाज की बाधा न वाणी लाँघ पाई ।

चाहतीं थी,तुम न फिर भी रोक पाएँ ।

थे सबल संकेत, पर पलकें प्रबल थीं

झुक गयी जो पुतलियों पर सींच जल थी।

समय था मानो समंदर बन गया था, हर निमिष तट से परे होतागया मैं।

विपिन चतुर्वेदी

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