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Saturday, October 30, 2010

बृहद भरत चरित्र महाकाव्य

राम का आस्तिक मत -
मुनि की बुद्धि विषय पथ थामी। वेद विरुद्ध मार्गानुगामी । ।
विप्र प्रवर घोर नास्तिक पूरा । धर्म मार्ग से कोसों दूरा। ।
राम आगे कहते हैं कि मुनि जावालि की बुद्धि विषयरूपी पथ को पकडे हुए है। मुनि वेद विरुद्ध मार्ग का अनुशरण कर रहे हैं । विप्रप्रवर मुनि घोर नास्तिक हैं और वे धर्म मार्ग से कोसों दूर हैं।
ऐसा ढ़ोंगी ज्ञान तिहारा। अनुचित विचारमयी प्राचारा। ।
जिन्हें याचक बनाया ताता। जिनहि कार्य निन्दित दिन राता। ।
हे मुनि! तुम्हारा ऐसा ढ़ोंगी ज्ञान है। तुम अनुचित विचारों का प्रचार करते हो। तातने जिन्हें याचक बनाया और जिनके कार्य दिन रत निन्दित हैं।
दंडनीय होय चोर जैसे । तासु बुद्धि दंडनीय वैसे। ।
जो नास्तिक रागजु आलापा। उससे करो न वर्तालापा । ।
वह चोर की तरह दण्डित हो और उसकी बुद्धि भी वैसे हि दण्डित हो। जो नास्तिकता का राग आलापता है उससे बात मत करो।
जो जन धर्म सत्पुरुष संगा। वेद धर्म को न करे भंगा । ।
होय तेजस्वी दानरूपी। वह जन पूजनीय बहु रुपी । ।
जो मनुष्य धर्म और सत्पुरुषों के साथ रहते हैं और वेद धर्म को भंग नहीं करते हैं एवं वे तेजस्वी और दानी हों तो वे जन अनेक प्रकार से पूजनीय होते हैं।
दोहा - दैन्यभाव से रहित , कौशल्या का लाल ।
सरोष द्विजमुनि से कहा, आँखरक्त तत्काल । ।
कौशल्या का पुत्र राम दैन्यभाव से रहित है। और राम ने अपनी आँखें लाल करके व क्रोधित होकर ब्रह्मण मुनि जावालि से कहा।
तब द्विज जावालि सविनय, कहि आस्तिक्तापूर्ण ।
सत्य कल्याणप्रद वचन, प्रभु! सुनो ध्यानपूर्ण । ।
तब मुनि जावालि ने सविनय आस्तिक्तापूर्ण राम से कहा, हे प्रभु! ध्यानपूर्वक सुनो, सत्य वचन कल्याणप्रद ही है।
मैं नास्तिक नाही हे रामा। अवसर देख कहा अभिरामा। ।
श्रीराम! एक ध्येय था मेरा। किसी तरह अवध हो सवेरा। ।
मुनि जावालि ने कहा कि हे राम! मैं नास्तिक नहीं हूँ। हे राम! ये सब अवसर देखकर कहा था। राम! मेरा ध्येय था कि किसी तरह आप अयोध्या वापिस चलें और अयोध्या में सवेरा हो जाए।
तात मात बांधव जग लोका। सबसे देखा जाय न शोका। ।
अतः तुमको गया भरमाया । ताकि तुम्हें लूँ वापिस पाया । ।
मुनि ने कहा कि हे राम! तात, मात, बंधु-बांधव आदि सबसे यह शोक देखा नहीं जा रहा है। अतः आपको भरमाया गया है ताकि मैं आपको भरत का अनुग्रह मनवाकर वापिस अयोध्या ले चलूँ।
दोहा- विप्र प्रवर का भाव सुन, राम रोष हो शांत।
जन मानस है बहु सुखद, भरत सहज द्रष्टान्त । ।
विप्रवर मुनि जावालि का भाव सुनकर राम का रोष शांत हो गया। भरत के सहज द्रष्टान्त से जनमानस बहुत सुखद है।
रचयिता- भगवान सिंह हंस
प्रस्तुतकर्ता- योगेश विकास

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