हास्य-व्यंग्य-
दिल्ली में पुल गिर गया
हम भारतीय क्षणभंगुरता में बहुत गहरे विश्वास करते हैं। समय के आगे कौन टिक सका है। इस बात को खूब अच्छी तरह से जानते हैं। इस लिए समय से पंजा लड़ाना मूर्खता समझते हैं। जब एक-न-एक दिन सब कुछ नष्ट होना ही है तो फिर किसी चीज को स्थाई बनाने में क्यों मगज पच्ची की जाए। जिसे चार दिन बाद गिरना है वो यदि दो दिन पहले गिर जाए तो उसमें हंगामा बरपा करने की क्या जरूरत है। अब पुल गिर गया जिसे बने अभी चार दिन भी नहीं हुए थे तो कौन-सा गजब हो गया। पुल गिरा तो यह तो तय हुआ कि पुल बना था। हमारे यहां तो ऐसे भी कारनामें होते हैं कि पुल सिर्फ कागज़ों पर ही बन जाते हैं। और वह भी वहां जहां जरूरत नहीं होती। कम-से-कम यह पुल सचमुच में बना तो था। इस बात की प्रशंसा तो कोई कर नहीं रहा फालतू की चकल्लस काट रहे हैं। ये सब देशद्रोही लोग हैं। मजबूती का काम देशद्रोही ही करते हैं। अंग्रेजों ने लोहे का पुल बनवाया उसकी मियाद निकल चुकी फिर भी नहीं टूट रहा। बेशर्म कहीं का। अगर भारतीयों ने बनाया होता तो अब तक न जाने कितनी बार टूट कर बन चुका होता। अब देखिए हमारा एक पुल बनकर चार दिन में गिर गया और यह बेशर्म अब भी खड़ा है सीना ताने। कामनवेल्थ गेम हो रहे हैं। लाखों सैलानी आंएगे और सौ-डेढ़सौ साल पुराना पुल देखेंगे तो कहां जाएगी हमारी इज्जत। क्या रह जाएगी हमारी इज्जत। लोगों को कहने का मौका मिलेगा कि जो अंग्रेज पुल बनवा गए बस वही खड़े हैं। इंडिया में। इस पुल के गिरने से यह संदेश जाएगा कि अंग्रेजों के अलावा भी पुल बनते हैं भारत में। क्षणभँगुर पुल। नश्वरता के प्रतीक पुल। आधुनिक भारत के निर्माता जवाहर लाल नेहरू। उनके सामने पुरानी चीज कहां टिकती है। पुरानेपन के विचार के घोर विरोधी थे नेहरूजी। इसलिए उनके नाम के बने स्टेडियम को यह सहन नहीं हुआ। उसने पुल को ऐसे झटक दिया-जैसे कोई शरीर से मच्छर को झिटक देता है। चलो पुल ने टूटकर देश की इज्जत बचा ली। हमें ऐसे देशभक्त पुलों पर गर्व है। उम्मीद है कि ये पुल हमें भविष्य में भी गर्वोन्नत होने का मौका देते रहेंगे।
सड़कछाप आदमी का बयान
भारत कभी कृषिप्रधान देश था,आज सड़क प्रधान देश बन चुका है।क्योंकि यहां आदमी सड़क को अपने व्यक्तित्व में इतना उतार लेता है कि बड़ी शान से वह सड़क छाप बन जाता है। और सड़क नापते-नापते सड़क से संसद तक पहुंच जाता है। और साहब कुर्सी से उतरते ही फिर सड़क पर आ जाता है। और जो होनहार बिरवान सड़क को ही अपना इष्ट मान लेता है वह आगे चलकर सड़क-परिवहन मंत्री तक बन जाता है। सड़क भी शहर में किसिम-किसिम की होती हैं। मसलन-ठंडी सड़क,गर्म सड़क,नई सड़क,पुरानी सड़क,छहफुटा सड़क। सड़क अनंत सड़क कथा अनंता। वैसे हमारे देश की, देश के लोकमानस की,लोकतंत्र की और लोकसंस्कृति की आपको झलक देखनी हो तो सड़क का मुआयना भर कर लीजिए। धरना,प्रदर्शन,शादी-बारात, धार्मिक जलूस और युवा प्रेमियों के प्रणय की क्रीड़ा स्थली यह सड़क ही होती है। और अगर सड़क महिला कालेज या गर्ल्स होस्टल के सामने की सड़क हो तो इसका सांस्कृतिक महत्व कुछ और ज्यादा बढ़ जाता है। सड़क हमारे देश में बहुआयामी गतिविधियों की विविध भारती स्थली होती है। अब तो बड़े-बड़े नेता भी सड़क का महत्व समझ के रोड शो करने लगे हैं। महानगरों में तो रोज़-रोज़ रोडरेज़िंग के कार्यक्रम उत्साहपूर्वक आयोजित होने लगे हैं। और सड़क-संग्राम में आए दिन कुछ सड़क-बांकुरे शहीद भी हो जाते हैं। और सड़क के आन-बान-शान और सम्मान में चार चांद लगा देते हैं। कुछ श्रंगार प्रेमी नेताओं को तो सड़क हेमामालिनी के गालों की तरह चिकने नज़र आते हैं। सड़क का दर्शन और प्रदर्शन बड़ा निराला है। और सही बात तो यह है कि हमारे देश में सिर्फ एहसास है जिसे रूह से महसूस किया जाता है,और वैसे कहीं होती नहीं है। इसके अस्तित्व को आत्मा और परमात्मा की तरह मान लिया जाता है और यदि कहीं होती भी है तो इसका अवतरण किसी भगीरथ के प्रयासों से गंगा के अवतरण की तरह ही हो पाता है। हमारे विभागों के समन्वय और साझा संस्कृति का भी प्रतीक है। जैसे ही लोकनिर्माण विभाग किसी सड़क के सौंदर्य को संवारता है तत्काल शमा पर-जैसे परवाने मंडराते है टेलीफोन विभाग,नल-सीवर विभाग और मोबाइल कंपनियों के जांबाज उसे खोद-खादकर पुनः उसके मौलिक रूप में पहुंचा देते हैं। और फिर कोई सिरफिरा डिपार्टमेंट दोबारा सड़क के साथ ऐसा कोई दुर्व्यवहार न कर सके संवेदनशील दुकानदार इस पवित्र भावना से ओतप्रोत होकर वहां बाजार उगा देते हैं। कोलंबस ने भले ही अमेरिका खोज लिया हो मगर यहां कभी कोई सड़क भी थी इसका पता वो भी नहीं लगा सकता। हां आनेवाली पीढियां जरूर इस विषय पर पीएच.डी कर लेंगी कि कभी यहां कोई सड़क हुआ करती थी। महानगरों में सरकार सड़क के मिजाज का इतना ध्यान रखती हैं कि जहां सचमुच में फ्लाई ओवर की जरूरत होती है वहां फ्लाईओवर न बनाकर वहां बना देती है, जहां उसकी जरूरत कतई नहीं होती। सड़क भी खुश और ठेकेदार भी खुश। और उदघाटन करके नेता भी खुश। कभी इसी सड़क पर हाथी पर बैठकर हाथवादी सरकार सत्ता की पिकनिक मनाया करती थी और हाथी को बाएं चलो-बांए चलो की कवायद कराया करती थी आज वही सरकार साइकल की बाहों में बांह डाले हाथी से दो-दो हाथ करने के मूड में है। दिल्ली के राजपथ पर रोज़ ऐसे ही नाटक होते रहते हैं। हम तो ठहरे भैया जनपद के मुसाफिर। अदना से आदमी। आम आदमी। जिसकी सड़क सिर्फ के समंदर में जाकर खो जाती है। और जहां सूचना लिखी होती है-सावधान आगे खतरनाक मोड़ है। और मैं ठिठुरकर सुस्त कदम वहीं खड़ा रह जाता हूं। देश के लोकतंत्र की तरह। जो पिछले 61 साल से सड़क पर ही खड़ा है। एक सड़कछाप मवाली की तरह।
पंडित सुरेशनीरव
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