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Thursday, November 4, 2010

ज्योति-कलश छलके


दीपावली पर एक विशेष भेंट-
जयलोकमंगल कवि सम्मेलन-2010
एक अनूठा 
इंटरनेटी कविसम्मेलन
संयोजकः भगवानसिंह हंस
संचालकः पंडित सुरेशनीरव
ये मयखाना है जामेजम नहीं
यहां कोई किसी से कम नहीं
लीजिए कविसम्मेलन का शुभारंभ करते हैं सरस्वतीवंदना से और इसके लिए आमंत्रित कर रहा हूं मैं श्रीमती मधु मिश्रा को कि वे आएं और अपनी मधुरवाणी से कवि सम्मेलन का शुभारंभ करें-
 मधुमिश्रा- मैं निरालाजी की प्रसिद्ध रचना वरदे से कवि सम्मेलन का शुभारंभ कर रही हूं-
वर दे वीणावादनी वर दे
नव गति नव लय ताल छंद नव
नवल कंठ नव जलद मंद रव
नव-नव के नव विहग वृंद को
नव पर नव स्वर दे
वर दे वीणावादनी वर दे
काट अंध उर के बंधन स्तर
बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर
कलुष भेद तम हर प्रकाशभर
जगमग-जग करदे
वर दे वीणावादनी वर दे। 
सरस्वतीवंदना के इस सुमधुर रचना पाठ के मैं जरूरी समझता हूं कि राष्ट्रभाषा की भी वंदना हो। और यह दायित्व मैं ही निभाए देता हूं-

हिंदी भारत की भाषा है,संस्कृति की गौरव गाथा है
भाषा मंदिर की देवी के माथे शोभित जो बिंदी है
वो पंत,निराला दिनकर की कविता से निकली हिंदी है
भारत के जन-गण के मन की हिंदी ही अभिलाषा है
हिंदी भारत की भाषा है,संस्कृति की गौरव गाथा है।
 बंधन गुलामी की कारा के इस हिंदी ने ही थे तोड़े
संबंध एकता के इसने ही सारे भारत में जोड़े
अपनी भाषा का एक शब्द भी देता बड़ी दिलासा है
हिंदी भारत की भाषा है,संस्कृति की गौरव गाथा है।
बिस्मिल,सुभाष,आजाद,भगत हिंदी के अभिनव ज्ञानी थे
रसधार बही थी कविता की कवि भारतेंदु की वाणी से
आजादी के जंग में भी दर्जा हिंदी का खासा है
हिंदी भारत की भाषा है,संस्कृति की गौरव गाथा है।
 अंग्रेजी के मोह में पड़कर हम अपनी निशानी भूल गए
पीजा,बर्गर के चक्कर में क्यें गुड़धानी को भूल गए
भावों की थाली में हिंदी पूजन का पान-बताशा है
हिंदी भारत की भाषा है,संस्कृति की गौरव गाथा है।
 अंतरिक्ष में भारत ने भाषा बोली वो हिंदी है
विश्वकोष में ऊंची सबसे हिंदी की आसंदी है
जा पहुंची राष्ट्रसंघ तक हिंदी भारत का चमका माथा है
हिंदी भारत की भाषा है,संस्कृति की गौरव गाथा है।

 और इस भाषावंदना के बाद मैं आमंत्रित कर रहा हूं जयलोक मंगल की नई सदस्या और पश्यंती की रचनाकार दया निर्दोषी को कि वे आएं और अपनी कविता से वातावरण को रस मय बनाएं-
दया निर्दोषी- मैं एक कविता पढ़ रही हूं,शीर्षक है-

कतरा-कतरा सुबह
बूँद -बूँद पिघलता है अँधेरा
कतरा -कतरा सुबह बिखरती है
लहरों की बाँहों में आकर
सोंणी धूप निखरती है
देखकर यह रूप परिंदे
दीवाने हो जाते है
शबनम के मोती घबड़ाकर
धरती में खो जाते है
सांसे -सांसे ,खुशबू -खुशबू
फूलों के संग भंवरे है
रंगों की पिचकारी से
पर तितली के संवरे है
हवा -हवा रेशम रेशम
दिलकश सुबह के मंजर है
पुरवाई के झोंके है  ये
या कातिल के खंजर है ?
दया "निर्दोषी "
और लीजिए साहब दया "निर्दोषी " के बाद आपके सामने तशरीफ ला रही हैं देश की मशहूर कवयित्री डाक्टर मधु चतुर्वेदी जिनके लिए मैं कहता हूं कि-
 तुझको निहारता हूं सुबह से ऋतंभरा
अब शाम हो रही है मगर मन नहीं भरा
पौधे झुलस गए हैं मगर एक बात है
मेरी नजर में अब भी चमन है हराभरा
(श्रोताओं में से आवाजः सावन के अंधे को हरा-हरा ही दीखता है।)
डाक्टर मधु चतुर्वेदीः पहले में पंडित सुरेश नीरव के लिए मंगलकामनाएं देती हूं-
कलित-कल्पना,भाव-व्यंजना निशिदिन है तेरी चेरी
तेरे  आंगन, मुग्धा  कविता  सुबह-शाम मारे फेरी
 तू सुरेश फिर नीरव कैसे सुर को पूर्ण निनादित कर
जो जन-गण-मन कहना चाहे लेखन में अनुवादित कर
सबल पुत्र तू मात  भारती  का  तू  उसकी झोली भर
ओजस्वी स्वर शिथिल न किंचित भी हो ऐसा साहस धर
तू  शतायु  हो  ऐसी  सुभग-कामना  मेरी  मंगल  मय
उर्वर  रहे  युगों  तक  तेरी  तीक्ष्ण  लेखनी  यह निर्भय।
              (तालियों के स्वर...)
और लीजिए अब पढ़ती हूं कुछ दोहे-
तन बौराया आम है मन पलाश का फूल
भीगी-भीगी आंख में स्वप्न बो गए शूल
00
पलकों पर आंसूं टिके उनमें तेरा बिंब
लगता है ज्यों ओस में सूरज का प्रतिबिंब
00
रात अममनी-सी गई,हुआ उनींदा भोर
दिन अलसाया-सा गया सांझ हुई मुंह जोर
00
सांत पपीहे हो जरा,कोयल तू मक कूक
मुश्किल सो सोई अभी जगा न मन की हूक
00
बंधन तोड़े चाव सब,लाज पकड़ ले बांह
चरण कसमसाते रहे सूझ न पाई राह
00
बैठा चंपा वृक्ष पर ऐसे लखे चकोर
ज्यों प्रिय के प्यासे नयन पूंछे हो किस ठौर...
        (वाह...वाह..वाह)
संचालकः और लीजिए मधु चतुर्वेदी के बाद आ रहे हैं कविवर अरविंद पथिक जो औरत की वर्तमान स्थिति पर रोशनी डाल रहे हैं मैं इनकी कविता की भूमिका में सिर्प यह कहना चाहूंगा कि-
देवी होकर बंधी हुई है औरत नेकी बदियों से
इसकी आंखों में आता है पानी सारी नदियों से
आइए अरविंद पथिकजी-
 पथिकः नीरवजी ने जिस कविता की इतनी शानदार भूमिका बनाई है पेश है वह रचना- औरत
औरत सृजन करती है और
पुरुष ध्वंस
औरत भावुक है
पुरुष निर्मम नृशंस
फिर क्या कारम है
कि पुरुष पूरा पृष्ठ है
औरत सिर्फ हाशिया
औरत की ज़िंदगी और मौत का फैसला
करने का हक आखिर
पुरुष को किसने दिया
व्यवस्था न सही
सोच तो बदले कम-से-कम औरतें
औरतों को न जलाएं
और न खुद जलें...
(तालियां)
 और लीजिए साहब.. कविवर अरविंद पथिक के बाद तशरीफ ला रहे हैं भरत चरित महाकाव्य के रचयिता भगवान सिंह हंस-
 भगवान सिंह हंस- धन्यवाद नीरवजी आपको समर्पित है एक कविता जो कविता पर कविता है-

कविता दुआ है..
न कभी मैंने देखा था खुद को
न कभी खुद को जाना था
मैं  अपने आपके लिए
कितना अजनबी था,अनजाना था
मगर
अब पहचानने लगा हूं खुद को
तब से..
जब से कविता ने मुझको छुआ है
अरे कविता तो साक्षात ईश्वर की दुआ है
मैं कितना भरा-भरा हो गया हूं
इस दुआ को पाकर
कोई बता दे ये ज़माने को जाकर
कि कविता मेरी स्वामिनी है
और मैं..
कविता का चाकर..
संचालकः सच कहा है हंसजी ने कवि कविता का चाकर ही होता है। कविता जब चाहती है कवि से अपने को लिखवाती है।
और लीजिए अब आपके सामने तशरीफ ला रहे हैं जानदार-शानदार कवि जनाब रजनीकांत राजू...
रजनीकांत राजू... आपको एक ऐसे आदमी से मिलवाता हूं जो घोर निराशा के पलों में भी आशावादी है-
मेरे एक दोस्त का बांया हाथ
रेल एक्सीडेंट में
छोड़ गया उसका साथ मैंने पत्र लिखा
मित्र मैं बहुत दुखी हूं
तुम्हारा हाथ कट गया
दोस्त का जवाब आया- दुख की क्या बात है
मेरा तो संकट कट गया
अभी तक एम.ए.बीएड. बेरोजगार था
रोजी-रोटी के लिए बेकार ता
अब तो मेरी मौकरी लग जाएगी
सरकार विकलांग वर्ष मना रही है
विकलांगों को रोजगार दिला रही है।
संचालकः आशावाद का ये सुपर-डुपर उदाहरण है और इस आशा के वातावरण में डाक्टर अमरनाथ अमर तन्हाई से कुछ इस तरह बतियाते हैं-
 डाक्टर अमरनाथ अमरः पंडितजी मेरी कविता का शीर्षक है तन्हाई और तुम,ध्यान चाहूंगा-
तन्हाई और तुम,
ये दूरियां इसलिए भी सिमट गई हैं
कि तुम्हारे होने का एहसास भी
अब सच नहीं लगता है
क्योंकि फूलों,कलियों,घटाओं,
किरणों,पहाड़ों और बहारों में उभर आई है
तुम्हारी तस्वीर
और ये मेरे इतना करीब आ गए हैं
इसीलिए तो कहता हूं कि
सिमट गई हैं वे दूरियां
तुम्हारे नहीं होने के अहसास ने तुम्हें मेरे इतना करीब ला दिया है
कि तुम मेरा सोच बन गई हो
तुम खुद कहो क्या मैं अब भी तन्हा हूं।
संचालकः तो लीजिए साहब अब आपके सामने आ रही हैं दमोह के मोह को लेकर हमारे सामने आ रही हैं-डाक्टर प्रेमलता नीलम।
डाक्टर प्रेमलता नीलमः जयलोकमंगल के इस इंटरनेटी कवि सम्मेलन में पेश है मेरी एक ग़ज़ल-
रुख हवा के बदलने लगे
सूरज पूरब में ढलने लगे
अब इबादत भी मुश्किल हुई
स्वर्ण मंदिर भी छलने लगे
फिर से दीवाना मजहब हुआ
तेग मंदिर में चलने लगे
कुर्सियां पड़तीं कम देखकर
तख्त लेने मचलने लगे
ताज थे, जो थे शानेवतन
किसके टुकड़ों पे पलने लगे
अब तो नीलम फौलादी जिगर
बर्फ से हैं पिघलने लगे।
संचालकःडाक्टर प्रेमलता नीलम की इस बेहतरीन ग़ज़ल के बाद लीजिए अब आप की मुलाकात करा रहे हैं भाई मुकेश परमार से जो जयलोकमंगल में खूब लिखते हैं और खूब दिखते हैं..
 मुकेश परमारः धन्यवाद नीरवजी। मैं एक कविता पढ़ रहा हूं शीर्षक है भीतर का संसार
मैं सोचता हूं कि
वह वक्त कभी तो आएगा
जब मैं अपने भीतर को
कर सकूंगा व्यक्त
जो सदियों से है अव्यक्त
कभी तो सुना पाऊंगा
मन के जंगल में चहकते
पक्षियों के स्वर समाज को
कभी तो दिखा पाउंगा आईना संवेदनाओं के आज को
प्रवत,नदी,जंगल
क्या कुछ नहीं है मुझमें
बस तलाश है शब्दों की
जिनमें ये भीतर का संसार ढाल सकूं
लावारिस भावनाओं को
कविता के घर में पाल सकूं।
संचालकः और लीजिए ये हैं प्रकाश प्रलय। कटनी के कटपीस लेकर हाजिर हैं- प्रकाश प्रलय- 
 सरकारी कार्यालय मे
स्थिति
पल भर में
बदल जाती है ....
मुद्राएं देख  
मुद्रा बदल जाती है .......
संचालकः प्रकाश प्रलय की इस खिळखिलाती कविता के बाद लीदिए अब आपके सामने आ रहे हैं ग्वालियर से आए डाक्टर भगवान स्वरूप चैतन्य अपने कुछ दोहों के साथ-
फैशन की आंधी चली चला तेज तूफान
डूबे और फिर खो गए रिश्तों के जलयान
00
पढ़े-लिखे मजबूर हैं अनपढ़ दीन समान
मिला दिया क्यों धूल में गुरुओं का सम्मान
00
कपड़ा तन पर है नहीं नहीं लाज का नाम
नारी विज्ञापन हुई क्या होगा अंजाम
00
आजादी आई मगर मिला न कुछ सम्मान
है नसीब सबको  कहां, रोटी, वस्त्र, मकान
00
अपनों में मिलती नहीं अपनेपन की बात
दया-धरम दिल में नहीं करें रात-दिन घात
00
कांव-कांव करने लगे कौए हैं रस-वीर
दिन-दिन कड़वी हो रही कविता की रसखीर
00
सूखी धरती प्रेम की मैं क्या दूं अब तोय
प्रेम घटा बरसाइए सृजन अमर ये होय।
डाक्टर भगवानस्वरूप चैतन्य
संचालकः डाक्टर भगवानस्वरूप चैतन्य के बाद मंच संभाला पानीपत के योगेन्द्र मौदगल्य ने और कुछ इस तरह आज के आदमी पर व्यंग्य किया-
योगेन्द्र मौदगल्यः
 एक आदमी घर में पालने के लिए
कुत्ता खरीदने बाजार गया
कुत्तों के मालिक ने उसे अपना पूरा संग्रहालय दिखाया
आदमी को एक छोटे से पिल्ले पर प्यार आ गया
कीमत चुकाकर उसे ले जाने को वह हो गया तैयार
चलते समय पिल्ले ने बड़े ही मान और दुलार से
अपनी मां को चाटा और सहलाया
मां की आंखों में पानी भर आया
अपने मन पर काबू रखकर
उसने पिल्ले को समझाया-बेटे,जा रहे हो,अलविदा
लेकिन याद रखना,सदैव अपना पशुधर्म निभाना
जिस किसी का नमक खाना उसे दगा मत देना
उसका अहित मत करना
अपने मालिक का आजीवन साथ निभाना
लेकिन खबरदार आदमी के साथ रहते-रहते
आदमी मत बन जाना।
तो ये है आज का कवि सम्मेलन। हमें यकीन है कि जयलोकमंगल के पाठकों को ये जरूर पसंद आया होगा।आप अपने विचार जरूर हमें दें।
 इंतजार रहेगा...
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