
आदरणीय नीरवजी...
श्रीविश्मोहन तिवारीजी का आलेख पढ़ा। भाषा,साहित्य संस्कृति को लेकर उन्होंने जो चिंताएं जताई हैं और हमारी गुलाम मानसिकता पर कटाक्ष किया वह हमें सोचने को विवश करता है। आप ने इस पर जो सधी हुई प्रतिक्रिया दी है, उससे लगता है कि आपने लेख की मूल आत्मा से रू-ब-रू होने के बाद ही लेखनी चलाई है। आपने जो हालैंड का दृष्टांत दिया है,वह हमारी गुलाम जहनियत पर करारा तमाचा है।एक दृष्टांत याद आता है- हिटलर की नाजी सेना ने हालैंड को फरमान भेजा कि हमारा आधिपत्य स्वीकार कर लो ,युद्ध लड़ने के लिए तुम सक्षम नहीं हो। हालैंड का जबाब था कि हम चारों तरफ से समुद्र से घिरे हैं। हम समुद्री तट खोल देंगे। हम डूब जाएंगे। विश्व के मानचित्र पर हालैंड भले ही न रहे मगर हिटलर को हम यह मौका कभी नहीं देंगे कि वह हमें गुलाम बना सके। हम मिटने को तैयार हैं,मगर गुलाम बनने को नहीं। गुलामी संस्कृति-हीनता से आती है। संस्कृति श्रेष्ठता को तलवार भी नहीं झुका सकती। बंदा वैरागी,वीर हकीकत राय और सिखगुरू के दो वालक पुत्र प्राण दे देते हैं मगर समझौता नहीं करते। रामप्रसाद बिस्मिल,चंद्रशेखर आजाद.और भगत सिंह के पास ब्रितानिया सकरार से लड़ने का जज्बा था जो उन्हें संस्कृति से मिला था। तब हम गुलाम होकर भी आजाद चेतना के मालिक थे। आज हम बिना युद्ध लड़े आत्मसमर्पित गुलाम हैं,जिसकी न अपनी कोई भाषा है और न संस्कृति। हमने ये आजादी हासिल करने के मुआवजे में अपने आकाओं को सौंप दी है। हमें इससे कोई फर्क भी नहीं पड़ता क्योंकि हम पैदाइशी गुलाम हैं। और हमें गर्व है कि हम गुलाम हैं।
आप दोनों को बधाई...
मुकेश परमार
 
 
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