डाक्टर अरविंद चतुर्वेदीजी,
पालागन... चुनाव सर्वेक्षण को लेकर आपने विरोधाभासी आंकड़ों की मीडिया नौटंकी की जो झलक पेश की है उस संबंध में मैं आपको एक किस्सा सुनाता हूं- हमारे एक ज्योतिषी मित्र थे उन्होंने एक पार्टी से पर्याप्त धन लेकर अपनी भविष्यवाणी में उस पार्टी की सरकार बना दी। सारे ग्रह और नक्षत्र पेल दिए अपनी भविष्यवाणी के समर्थन में। मेरे पास आए बोले- आपने मेरी भविष्यवाणी पढ़ ली। मैंने कहा- आप की खुद इस वक्त राहू की महा दशा चल रही है, इसलिए आपकी भविष्यवाणी सही नहीं होगी और जो ये भविष्यवाणी आपने की है वह तो कतई सही नहीं निकलेगी। वो घबड़ा गए बोले- फिर क्या करें।हमने कहा- थोड़ा होमवर्क करके एक भविष्यवाणी ऐसी कर दो जिसमें दूसरी पार्टी की सरकार बन जाए । ज्योतिषीजी बोले- वो कहां छपेगी। मैंने कहा- उसे भूल जाओ। उसका छपना-छपाना मेरा सरदर्द है। वो मेहनत करके एक लेख और लिख लाए। जिसमें उन्होंने दूसरी पार्टी की सरकार बना दी। चुनाव परिणाम आए तो मेरी वाली भविष्यवाणी ही सही निकली। ज्योतिषीजी ने तो फिर हर जगह दावे करने शुरू कर दिए कि मैंने तो यह भविष्यवाणी बहुत पहले ही कर दी थी कि सरकार इसी पार्टी की बनेगी। जोकि फलां-फलां पत्रिका में छपी थी। तो दो एक-दम उलट भविष्यवाणी या सर्वेक्षण देने में यह फायदा रहता है कि आदमी कभी गलत सिद्ध नहीं होता। इसे कहते हैं,चित भी मेरी और पट भी मेरी। सफल खिलाड़ी दोनों हाथों में लड्डू लेकर चलते हैं। ये सर्वेक्षण भी ऐसे ही चंट खिलाड़ियों के फंडे हैं।. बाजार में ऐसा ही होता है। सरकार किसी की भी बने अपनी दुकान बंद नहीं होनी चाहिए। इसलिए आप चिंतित न हैं और मगन होकर इनके कुटिल खेल का लुत्फ उटाएं। वैसे भी आपके कहने-सुनने,लिखने-पढ़ने का इन पर कोई असर होने का नहीं है। ये चिकने घड़े हैं। इसलिए खड़े हैं। शर्मदार तो गुमनामी में पड़े हैं।
इसीलिए कह रहा हूं कि डोंट वरी Be Happy
श्रीमान हीरालाल पांडे ने जो पोस्ट नेहरू-गांधी वंश पर भेजी है वो हैरतअंगेज है। लेखक ने तथ्यों को जुटाने में तमाम सूचनाओं के खंगालने में जो मशक्कत और कवायद की है वह यकीनन मेहनत की मांग करती है। तथ्यों की प्रामाणिकता को अगर और पारदर्शी बनाया जाता तो लेख की प्रामाणिकता में इजाफा ही होता। मुझे उम्मीद है कि वो मेरी बात पर गौर करेंगे। और अगली बार तमाम प्रामाणिक जानकारियों से लैस होकर मैदान में उतरेंगे। हमें इंतजार रहेगा।चलो सुहाना भरम तो टूटा,ये आज जाना फेमिली क्या है।
तीसरी पोस्ट प्रशांत योगीजी की पढ़ी। उन्होंने नए और पुराने के बीच चले आ रहे विवाद को बड़े ढंग से व्याख्यायित किया है। दरअसल हम जब कभी किसी तथ्य को समग्रता में नहीं देखते हैं तभी विरोधाभासी दावे सामने आते हैं। यह हमारी विखंडित चेतना की पैदाइश होते हैं। जैसे कि एक हाथी को अंधे के सर्वेक्षण दल द्वारा खोजना। किसी के लिए हाथी रस्सी है तो किसी के लिए खंभा। तो किसी के लिए पहाड़। जिसने हाथी को समग्रता में देख लिया तो उसके निष्कर्ष इन सबसे भिन्न होंगे। हम जब समय को काल खंड में देखेंगे तो अतीत-वर्तमान-भविष्य के टुकड़ों में ही उसे देख पाते हैं। अंधों द्वारा हाथी को देखने की तरह। समय को हम अपनी सुविधा से बांटते हैं। वरना समय का विभाजन संभव है क्या। समय तो शाश्वत है। Always है। वहां क्या नया।क्या पुराना। विखंडित मेधा के लिए आधा गिसास जल आधा भरा है तो आधा खाली भी। खाली और भरेपन का जो सापेक्ष बिंदु है हमें उसे पहचानना होगा। तभी हम समय मे रहकर भी समय के पार हो पाएंगे। समय में रहकर समय से मुक्त होना ही शाश्वतता में होना है। यही कैवल्य है। यही मोक्ष है। यही निर्वाण है। स्वर्ग और नर्क के अतिरिक्त यही समय का तीसरा आयाम है। जहां नया-पुराना कुछ नहीं। ईसा ने इसे ही बियांड द टाइम कहा है। मेरे प्रणाम...
पंडित सुरेश नीरव
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