
आदरणीय नीरवजी,
पूरा लेख एक तेजाब में भीगा आलेख है। पंचायतराज पर आपने बढ़िया निशाने साधे हैं। परंपरा और आधुनिकता दोनों को आपने अच्छे ढंग सेसमेटा है। बधाई...
पंचायतीराज के मार्ग से ही देश आगे बढ़ेगा। हमारी तो संस्कृति के बिल्कुल माफिक बैठती है, यह व्यवस्था। जिस भी चीज़ को हाई क्वालिटी का करना हो,उसके के साथ पंच जोड़ देने से चमत्कार हो जाता है। अफसोस है कि हमारे हजारों-लाखों कथाकार जो अपने को समझदार समझते हैं, वो इत्ती-सी बात भी नहीं समझ पाए। केवल विष्णु शर्मा नाम के एक कथाकार ही समझ पाए। उन्होंने अपनी कथाओं के पहले पंचतंत्र जोड़ दिया। वे अमर हो गए। है कोई जो उन्हें टक्कर दे दे। पंचा लपेटे कथा के अखाड़े में वे आजतक सबको ललकार रहे हैं। विष्णु शर्मा-जैसा अमृत्व पाने की लालसा में सैंकड़ों कथाकार पंचत्त्व में विलीन हो गए। और अमरत्व तो क्या बेचारों का पंचनामा तक नहीं लिखा गया। क्योंकि वे ना तो कहीं के पंच थे,और ना ही उनके पास था-नामा। पंच जो नामा कमाता है,या जो नामा पंच को दिया जाता है,आजकल उसे ही पंचनामा कहा जाता है। अब जिनको कभी पंच होने का मौका ही नहीं मिला,. उनकी क्या राय। चाहे मुगल सराय हो या लाढ़ो सराय। और यू भी एश्वर्या राय अभिषेक के पास है। तो फिर काहे की राय। पंचायतीराज में वैसे भी निजी राय की कोई अहमियत नहीं होती। जो पंचों की राय सो हमारी राय। आज की राजनीति का पंचांग यही कहता है। और-तो-और आज जिस डायलाग में पंच होता है,सिर्फ वही याद किया जाता है। आज जिन लेखकों ने इन पंचायती कारनामों का महत्व समझ लिया है,उन्होंने निजी लेखन बंद करके पंचायती लेखन शुरू कर दिया है। इससे सबसे बड़ा फायदा तो उन्हें यह होता है कि रचना के सृजन के ही साथ, या उससे पहले ही पांच प्रबल प्रशंसक पैदा जाते हैं। लेखक रचना की सृष्टि करता है। इसलिए वह ब्रह्मा का ही रूप होता है। और ब्रह्मा भी सृष्टि करता है। उसने तो सृष्टि की ही सृष्टि कर डाली थी। पंच का महत्व उन्हें भी मालुम था इसीलिए वे भी पंचमुखी हो गए। पांच की यही तो प्रतिष्ठा है। ना पांच से ज्यादा ना पांच से कम। रावण ने लालच में दस मुंह हथियालिए। इसलिए राक्षस कहलाया। मट्टी पलीद हो गई। पांच मुंह ही रखता तो पंचमुखी गणेश,और पंचमुखी हनुमान न सही तो कम-से-कम पंचमुखी रुद्राक्ष की हैसियत तो कमा ही लेता। द्रौपदी अपरिग्रही थी। उसने सौ कौरवों की जगह पांच पांडवों में ही संतोष, कर लिया। इसलिए पांचाली के रूप में प्रतिष्ठित हो गईं। पांच पांडवों के सिर पर उसका जादू चलता था। शायद दुनिया की पहली सरपंच थी द्रौपदी। हो सकता हैं और भी हों मगर उनका कोई रिकार्ड नहीं मिलता। इतीहास उन्हीं का होता है जिनका रिकार्ड होता है या जो रिकार्ड तोड़ते हैं। सारा इतिहास पंचों से भरा पड़ा है। पंच की महिमा ही ऐसी है। इतिहास में दुर्घटनावश कई राजा भी हुए मगर उन्होंने पंच का महत्व इतना समझा की अपने को पांचाल नरेश ही कहाते रहे। सोचो तो राजा होकर भी पंच क्यों रहे। अरे,बड़े-बड़े राजा पंच के आगे पानी भरते हैं। द्रौपदी का दुशासन,दुर्योधन क्या बिगाड़ पाए। राजा होकर चीरहरण-जैसी मामूली वारदात तक नहीं कर पाए।
हीरालाल पांडे का ताजमहल को लेकर अच्छा लेख है। जानकारी काफी रोचक हैं। बधाई...
डाक्टरप्रेमलता नीलम
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