हास्य-व्यंग्य-
पंचायत की सनातन परंपरा
पंडित सुरेश नीरव
हम प्रगतिशील देश हैं। प्रगति हमारी परंपरा है। इसलिए अन्य क्षेत्रों में प्रगति हो यह तो ठीक है, मगर इसके साथ-साथ परंपराओं की भी प्रगति हो, इसका सरकार विशेष ध्यान रखती है। सरकार किसी मुद्दे पर ध्यान दे अपने-आप में यही विशेष होता है मगर सरकार विशेष ध्यान दे फिर तो यह सुपर विशेष मामला हो जाता है। प्रगति और परंपरा में संतुलित विकास हो, इसलिए सरकार देश को कंप्यूटर और पंयायती राज दोनों की मदद से आगे बढ़ाएगी। सारा-का-सारा पंचायती राज कंप्यूटर में होगा और खुद कंप्यूटर पंचायत के दफ्तर में। जैसे पानी से भरा मटका तालाब में। मटके के बाहर भी जल और भीतर भी जल। कंप्यूटर के बाहर भी पंचायतीराज और कंप्यूटर के भीतर भी पंचायती राज। ये कबीरी कंप्यूटर है। देश में पंचायतीराज लाने के सारे सरकारी बंदोबस्त हो चुके हैं। सरकार जरूरी अस्त्र-शस्त्रों से पूरी तरह लैस है।वैसे भी संसद और विधानसभा खेलते-खेलते सरकार और जनता को बोरियत-सी हो गई है। कुछ चेंज तो चाहिए ही। इसलिए अब हम सी मिलकर पंचायत- पंचायत खेलेंगे। और फिर हमारी तो संस्कृति ही पंचायत करने की रही है। हमारे तो रोम-रोम में पंचायत बसती है। कुछ अज्ञानी पंचायत को गांव से जोड़कर देखते हैं। यह पंचायत का सरासर अपमान है। पंचायत तो आप शहरों की पाश कालोनी से लेकर खेतों और चौपालों तक सब जगह देख सकते हैं। जहां पांच नर या नारी मिले पंचायत शुरू। औपचारिक पंचायत में तो एक ही सरपंच होता है, मगर इस पंचायत में हर सदस्य सरपंच की हैसियत रखता है। कोई किसी से कम नहीं। सब बराबर। खालिस समाजवादी व्यवस्था। जहां चाही,जब चाही पंचायत बैठा दी। और जब चाही उठा दी। पंचायत भी इस उट्ठक-बैठक में कभी उज्र नहीं करती। बड़ी पोर्टेबल होती है,यह पंचायत। और बड़ी फुर्तीली भी। इधर समस्या आई और उधर फैसला। कभी-कभी तो मुद्दे को आने में देर हो जाती है,फैसला पहले ही हो जाता है। मुद्दा ही समस्या है। और इसके साथ समस्या यही है कि ये समस्या कभी टाइम पर नहीं आती। जब चाहो तो नहीं आएगी। और जब उसका मूड होगा तो सीना तानकर बिन बुलाए आ जाएगी। बड़ी स्वेच्छाचारी हो गई हैं-समस्याएं।बिल्कुल आजकल की नदियों की तरह। जो कभी भी दो गांव के बीच आकर पसर जाएगी। आदमी न इधर जा सके और न उधर का आदमी इधर आ सके। जब चाहा उफन गई। आ गई बाढ़। जिस नदी की बदौलत खेत पनपते हैं, उसी नदी की बदौलत हर साल न जाने कितने खेत खेत रहते हैं। इस नदी की मनमानी से। और मज़ा देखिए कि पच्चीस-तीस साल में जैसे-तैसे हमारी सरकार नदी पर पुल बनाती है,पुल बनाते ही नदी रास्ता बदल देती है। या सूखकर लापता हो जाती है। एक होड़-सी लग गई है,नदियों और सरकार के बीच। इधर सरकार ने पुल बनाया उधर फटाक से नदी सूखी। खूब प्रगति हो रही है। धड़ाधड़ पुल बन रहे हैं,फटाफट नदियां सूख रही हैं। देशवासी परेशान हैं सोचकर कि चलो पानी का तो कुछ नहीं बाजार से खरीद लेंगे,मगर नदियां यूं ही सूखती रहीं तो हम शहरभर का कचरा और कारखानों की गंदगी कहां डालेंगे. पवित्र नदियां सूख जाएंगी तो देवी-देवताओं का विसर्जन कहां करेंगे। हमारे बिहारी भाई छठ कहां मनाएंगे। नदियां बिल्कुल समस्याओं की तरह स्वेच्छाचारी हो गई हैं। शायद पंचायती राज से स्थिति कुछ नियंत्रण में आए। सरकार यही मानती है कि पंचायतीराज के सामने समस्याएं ऐसे ही थऱथऱाएंगी-जैसे ओझा–तांत्रिक के आगे कोई चुड़ैल। वैसे हमारे देश में पंचायतें पहले भी थीं मगर ऐसी समस्याएं कभी नहीं आई। कुछ लोगों का तो यहां तक मानना है कि पंचायतें पहले से थीं देश बाद में बना। पंचायतों ने अपने यूज के लिए ही देश का आविष्कार किया। देश बना,जातियां बनीं और फिर समस्याएं बनीं। सारा देश ही पंचायत की गोद में पल-पोसकर बड़ा हुआ है। हर जाति की अलग पंचायत। अलग हुक्का। इन पंचायतों का जलबो-जलाल देखकर ही सरकार के भी मुंह में सारे देश की नदियों का पानी आ गया। मन ललचा गया पंचायतीराज लाने को। कैसा मनोहारी दृश्य होता है इन निजी पंचायतों का। पेड़ की घनी छांव के नीचे चबूतरे पर पंच परमेश्वर बैठे हैं। घनी-घनी मूंछे,हाथ में डंडा। साक्षात भगवान का रूप। सदभाव से हुक्के पर दम लगाते हुए। प्रेमपूर्वक हुक्का बगलवाले को पास कर रहे हैं। चबूतरे के सामने नर-नारीवृंद बैठे हैं। दो युवा शरीर पेड़ की शाखों से गर्दन में रस्सी बांधकर लटका दिए गए हैं। वे कबूतर की तरह पंख फड़फड़ा रहे हैं। सभी नर-नारी एक अभूतपूर्व जातीय गौरव से भरे प्रेमी युगल की मौत का लाइव टेलीकास्ट देख रहे हैं। सारे माहौल में सर्वसम्मति का दिव्य आलोक फैला हुआ है। वे सभी इस दृश्य को इतने मनोयोग से देख रहे हैं,इतने मनोयोग से तो वे एकता कपूर के सीरियलों को भी नहीं देखते। नाटक और जिंदगी में कुछ तो फर्क रहेगा ही। इन सीरियलों में तो पात्र मर-मर के जिंदा हो जाते हैं। कोई सच्ची-मुच्ची में थोड़े ही मरते हैं। आज तो सच्ची-मुच्ची में मर रहे हैं। पूरी पंचायत के सामने।
अलग-अलग जातियों के होंगे,ये प्रेमी.एक सूंघा पत्रकार प्रश्न उछालता है। जी,नहीं.. एक ही गोत्र के हैं। दूसरा पत्रकार जवाब देकर उसके प्रश्न के गुब्बारे की हवा निकाल देता है। आनर किलिंग का मामला है। पंचायत का फैसला मानकर दोनों स्वेच्छा से प्राण त्याग रहे हैं। सच हमारे संस्कारों में पंचायत की जड़े बहुत गहरी हैं। ये है व्यव्स्था। मरनेवाले का भी सम्मान और मौत की सजा सुनानेवाले का भी सम्मान। यही सदभाव देश को आगे ले जा सकता है। इसे कहते हैं न्याय। सांप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे। प्राथमिकता भी यही रहती है कि सांप मरे पर लाठी ना टूटे। क्योंकि लाठी अपनी होती है। सांप थोड़े ही अपना होता है। और एक लाठी से कितने सांप मारे जा सकते हैं,ये ना लाठी को मालुम होता है और ना लाठीवाले को।, असीम संभावनाओं का सनातन खजाना होती है- एक लाठी। लाठी टूटी तो सारी संभावनाएं खल्लास। इस लाठी का महत्व जानकर ही तो इत्ते ऊंचे ओहदे पर बैठे हैं,ये लोग। बड़े जानकार लोग हैं। साक्षात परमेश्वर की फोटोस्टेटकापी। एक हाथ में हुक्का, दूजे में लाठी। लहीम-शहीम कद-काठी। हुक्के और पानी का साथ,न्याय का हाथ। जिसका हुक्का-पानी बंद हुआ उसकी प्यास तो कोई पेप्सी भी नहीं बुझा सकती। पानी खुद प्यासा रहता है इस हुक्के के पानी के लिए। कितनी सतर्क और स्वच्छ व्यवस्था है। चट क्राइम,पट न्याय। वरना तीरीख पर तारीख..फैसले का कोई पता नहीं। ठीक है कि देश में संसद और विधान सभाएं हैं,मगर पंचायत दा ज्वाब नहीं। तभी तो सरकार ने सारे देश में पंचायतीराज लागू कर डालने की ठान ली है। पंचायत करना स्त्रियों का प्रकृति प्रदत्त अधिकार है। सरकार ने इस बात को भलीभांति समझ लिया है। इसलिए इस व्यव्स्था में स्त्रियों को ईमानदारी से प्रतिनिधित्व दिया जा रहा है। इसी का सुफल है कि अम्माजी और सीया-जैसी कई महिला सरपंच यथार्थ में ही नहीं सीरियलों के माध्यम से भी प्रकाश में आ रही हैं। यह काम सरकार ने इतनी सफाई से किया है कि सफाई और सफाईकर्मी दोनों का ही सोल्लास सफाया हो गया है। इसे ही कहते हैं सामाजिक न्याय। पंचायतीराज के मार्ग से ही देश आगे बढ़ेगा। हमारी तो संस्कृति के बिल्कुल माफिक बैठती है, यह व्यवस्था। जिस भी चीज़ को हाई क्वालिटी का करना हो,उसके के साथ पंच जोड़ देने से चमत्कार हो जाता है। अफसोस है कि हमारे हजारों-लाखों कथाकार जो अपने को समझदार समझते हैं, वो इत्ती-सी बात भी नहीं समझ पाए। केवल विष्णु शर्मा नाम के एक कथाकार ही समझ पाए। उन्होंने अपनी कथाओं के पहले पंचतंत्र जोड़ दिया। वे अमर हो गए। है कोई जो उन्हें टक्कर दे दे। पंचा लपेटे कथा के अखाड़े में वे आजतक सबको ललकार रहे हैं। विष्णु शर्मा-जैसा अमृत्व पाने की लालसा में सैंकड़ों कथाकार पंचत्त्व में विलीन हो गए। और अमरत्व तो क्या बेचारों का पंचनामा तक नहीं लिखा गया। क्योंकि वे ना तो कहीं के पंच थे,और ना ही उनके पास था-नामा। पंच जो नामा कमाता है,या जो नामा पंच को दिया जाता है,आजकल उसे ही पंचनामा कहा जाता है। अब जिनको कभी पंच होने का मौका ही नहीं मिला,. उनकी क्या राय। चाहे मुगल सराय हो या लाढ़ो सराय। और यू भी एश्वर्या राय अभिषेक के पास है। तो फिर काहे की राय। पंचायतीराज में वैसे भी निजी राय की कोई अहमियत नहीं होती। जो पंचों की राय सो हमारी राय। आज की राजनीति का पंचांग यही कहता है। और-तो-और आज जिस डायलाग में पंच होता है,सिर्फ वही याद किया जाता है। आज जिन लेखकों ने इन पंचायती कारनामों का महत्व समझ लिया है,उन्होंने निजी लेखन बंद करके पंचायती लेखन शुरू कर दिया है। इससे सबसे बड़ा फायदा तो उन्हें यह होता है कि रचना के सृजन के ही साथ, या उससे पहले ही पांच प्रबल प्रशंसक पैदा जाते हैं। लेखक रचना की सृष्टि करता है। इसलिए वह ब्रह्मा का ही रूप होता है। और ब्रह्मा भी सृष्टि करता है। उसने तो सृष्टि की ही सृष्टि कर डाली थी। पंच का महत्व उन्हें भी मालुम था इसीलिए वे भी पंचमुखी हो गए। पांच की यही तो प्रतिष्ठा है। ना पांच से ज्यादा ना पांच से कम। रावण ने लालच में दस मुंह हथियालिए। इसलिए राक्षस कहलाया। मट्टी पलीद हो गई। पांच मुंह ही रखता तो पंचमुखी गणेश,और पंचमुखी हनुमान न सही तो कम-से-कम पंचमुखी रुद्राक्ष की हैसियत तो कमा ही लेता। द्रौपदी अपरिग्रही थी। उसने सौ कौरवों की जगह पांच पांडवों में ही संतोष, कर लिया। इसलिए पांचाली के रूप में प्रतिष्ठित हो गईं। पांच पांडवों के सिर पर उसका जादू चलता था। शायद दुनिया की पहली सरपंच थी द्रौपदी। हो सकता हैं और भी हों मगर उनका कोई रिकार्ड नहीं मिलता। इतीहास उन्हीं का होता है जिनका रिकार्ड होता है या जो रिकार्ड तोड़ते हैं। सारा इतिहास पंचों से भरा पड़ा है। पंच की महिमा ही ऐसी है। इतिहास में दुर्घटनावश कई राजा भी हुए मगर उन्होंने पंच का महत्व इतना समझा की अपने को पांचाल नरेश ही कहाते रहे। सोचो तो राजा होकर भी पंच क्यों रहे। अरे,बड़े-बड़े राजा पंच के आगे पानी भरते हैं। द्रौपदी का दुशासन,दुर्योधन क्या बिगाड़ पाए। राजा होकर चीरहरण-जैसी मामूली वारदात तक नहीं कर पाए। महाभारत हो गया सो अलग। तमाम द्रौपदियों का चीरहरण आज रोज़ होता है, पर महाभारत नहीं होता। क्योंकि ना तो वह पंच-सरपंच होती हैं और ना ही महाभारत कोई पान की दुकान के सामने होनेवाला पंगा। जो रोज़ हो जाए। आखिर महाभारत की भी तो कोई इज्जत है। ये पंचों का संघर्ष था। आम आदमियों का नहीं। हमारे यहां जो पंच नहीं वह पंक्चर ट्ूब से ज्यादा कुछ नहीं।
पंच शब्द का बड़ा महत्व है। ये दुर्लभ चीज़ को भी सुलभ बना देता है। अमृत किसको मिला है। मगर पंच शब्द जुड़ते ही यह पंचामृत बन जाता है। सर्वत्र सुलभ। बिल्कुल पंचरंगा आचार की तरह। या फिर मीन,मत्स्य, मदिरा,मुद्रा और मैथुन-जैसे पंचमकारों की तरह। पंच तो शब्द ही पारसमणि है। जिसे छू दे,वही सोना। अगर नाग के साथ जुड़ गया तो हो गई नागपंचमी। अगर कहीं केंचुओं की पंचमी होती तो वह भी नागों के फन मरोड़ देते। सामाजिक न्याय के समर्थकों को केंचुआ पंचमी मनाने का आंदोलन जरूर चलाना चाहिए। कबतक ये केंचुए पिछड़े ही रहेंगे। और देखिए कमाल ये पंच शब्द जुड़कर खूबसूरती भी पैदा कर देता है। ये जिस शहर के साथ जुड़ गया वही शहर खूबसूरत हो गया,चाहे पंचकूला हो,पंचगनी हो या पंचमढ़ी। इस तरह बेडाउट हम कह सकते हैं कि पंच और पंचायत हमारी संस्कृति के नियरेस्ट एंड डियरेस्ट प्राण हैं। और हमारी नज़र में वे भी सम्मानित हैं जो पंचायतीधर्मशाला में पैदा होते हैं, पंचायती भंडारों के बूते पर पलते-बढ़ते हैं और किसी पंचायती पाखानें में पंचक के शुभमहूर्त में पंचत्त्वों को छोड़कर स्वर्गारोहण कर जाते हैं। पंचत्त्व छुआछूत नहीं मानते। उनके लिए क्या मदिरालय और क्या शौचालय। पंचतत्वों का पंचायतग्रस्त क्षेत्र है ये सकल संसार। पंचतत्व स्थान निरपेक्ष होते हैं। और सुखद संयोग यह कि वे घर्मनिरपेक्ष भी होते हैं, बिल्कुल हमारी सरकार की तरह। और सरकार भी तो एक तरह की पंचायत ही है। बस थोड़े सा मेकअप अलग है।
आई-204,गोविंदपुरम,गाजियाबाद
मो.9810243966
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