कुछ मनोवैज्ञानिकों की मान्यता है कि आत्ममुग्ध व्यक्ति आत्म प्रशंसा के भूखे होते हैं, आत्मश्रेष्ठता से ग्रस्त होते हैं और उनमें सहानुभूति या सहवेदना की कमी होती है। अपनी इस हीनता से बचाव के लिये वे फ़ेसबुक पर ऐसा व्यवहार कर अपनी आत्मछवि संपुष्ट करते रहते हैं।
फेसबुक का जादू सर चढ़कर बोलता है। आदरणीय विश्वमोहन तिवारी की सारगर्भित पोस्ट ने काफी सोचने के आयाम खोले हैं। निश्चित ही आज जो ईमेल फिनोमिना का विकास हो रहा है उसने नई पीढ़ी के व्यक्ति को संकोच के झीने आवरण से निकालकर नग्न आत्म प्रशंसा के निर्लज्ज चौराहे पर धकेल दिया है। और ऐसे लोग जिन्हें सामाजिक मान्यताएं नहीं मिली हैं वे स्वयंभू बन रहे हैं। यह प्रवृत्ति आत्मघाती है। और इसपर लगाम कसी जानी चाहिए। चंद पंक्तिया अपने बारे में लिखकर अपने मुंह मियां मिट्ठू बननेलाले ये लोग एक माध्यम से मजाक कर रहे हैं और खुद भी मजाक ही बन रहे हैं। ईश्वर इन्हें सदबुद्धि दे। वरना मुझे अपनी इन पंक्तियों को खर्च करना ही पड़ेगा कि-
कंकड़ का विज्ञापन इतना छोटा लगने लगा हिमालय...।
पंडित सुरेश नीरव
पंडित सुरेश नीरव

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